राजस्‍थान के प्रमुख जनजाति आन्दोलन

राजस्‍थान के प्रमुख जनजाति आन्दोलन

भगत आन्दोलन-

राजस्थान में भीलों में जनजागृति स्वामी दयानन्द सरस्वती की प्रेरणा से हुई थी। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1875 में बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की थी। दयानन्द सरस्वती राजस्थान में तीन बार आये थे-

  • करौली।
  • उदयपुर (यहाँ पर सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ की रचना की थी- खड़ी बोली में)।
  • जोधपुर।
  • स्वामी दयानन्द सरस्वती को जोधपुर में नृत्यांग्ना नन्हीं जान ने दयानन्द सरस्वती के रसोईया जगन्नाथ के माध्यम से जहर दिलवा दिया था।
  • वह क्षेत्र जहां पर भीलों की आबादी अधिक होती हैं वह क्षेत्र भोमट अथवा मगरा कहलाता है जो मेवाड़ राज्य के दक्षिण-पश्चिम मे स्थित क्षेत्र है। भीलों पर नियन्त्रण करने के लिए 1841 में खैरवाड़ा(उदयपुर) में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने मेवाड़ भील कौर की स्थापना की थी।
  • भगत आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य भीलों को आर्थिक एवं सामाजिक सुधार करना था इस आन्दोलन का नेतृत्व गोविन्द गिरी ने किया था, गोविन्द गिरी का जन्म डूंगरपुर के बांसिया गाँव के बन्जारे परिवार में हुआ। गोविन्द गिरी ने 1883 में सिरोही में ’’सम्प सभा/सभ्य समाज’’ (सम्प का अर्थ होता है आपसी एकता) की स्थापना की थी, सम्प सभा का कार्य स्थल मानगढ़ धाम की पहाड़ी(बांसवाड़ा) थी।

गोविन्द गिरी ने सम्प सभा का पहला अधिवेशन सन् 1903 में मानगढ़ पहाड़ी पर आयोजित किया था तथा यहाँ हर वर्ष अश्विन शुक्ल पूर्णिमा को आयोजन होने लगा। 7 दिसम्बर, 1908 को हजारों आदिवासी भील मानगढ़ पहाड़ी पर एकत्रित होकर सभा कर रहे थे, तभी मेवाड़ भील कोर की एक सैनिक टुकडी ने आकर मशीनगनों से गोलियां चलाना शुरू कर दी। इसके बाद 17 नवम्बर 1913 को मानगढ़ धाम पर अंग्रेजों ने फिर से गोलियाँ चलाई थी जिसमें लगभग 1500 भील मारे गये थे। इस घटना को ’’राजस्थान का जलिया वाला बाग हत्याकाण्ड ’’ कहते हैं। इस घटना के बाद गोविन्द गिरी और पुन्जिया नामक व्यक्ति को बन्दी बनाकर अहमदाबाद जेल भेज दिया। दस साल सजा भुगतने के बाद गोविन्द गिरी को सरकारी निगरानी में रिहा किया गया तथा गुजरात के पंचमहल जिले के कम्बोई नामक स्थान पर गोविन्द गिरी ने अपना अन्तिम समय बिताया। 17 नवम्बर 2012 को मानगढ़ धाम के हत्याकाण्ड के 100 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में राज्य सरकार ने इसे शहीद स्मारक घोषित किया था। मानगढ़ में गुरू की स्मृति में प्रतिवर्ष पौष महिने में मेला का आयोजन होता है।

गोविन्दगिरीः-

  • गोविन्द गिरी का जन्म डूँगरपुर राज्य के बाँसिया गाँव में एक बिणजारे के घर हुआ। साधारण तरीके से गाँव के पुजारी से शिक्षा प्राप्त करके वे साधु राजगिरी के शिष्य बन गये तथा बेड़सा गाँव में धुणी रमा कर भीलों के आस-पास गाँव वालों आध्यात्मिक शिक्षा देने शुरू किया और 1818 में वे दयानन्द सरस्वती के सम्पर्क में आये और उनसे प्रेरणा लेकर आदिवासी सुधार एवं स्वदेशी आन्दोलन शुरू किया।

मेर आन्दोलन-

  • जनजातियों में मेर जनजाति भी मुख्य है, जिसका आजीविका चलाने का मुख्य कार्य लूटपाट करना है तथा इस जनजाति का आबाद क्षेत्र मेरवाड़ा है। जो किसी एक रियासत के अधीन न होकर अजमेर, मारवाड़, मेवाड़ के अधीन था। अंग्रेजों द्वारा मेरों को अपने नियन्त्रण में लेने के कारण मेर जनजाति ने विद्रोह कर दिया।

अजमेर के अंग्रेज सुपरिन्टेन्डेट एफ. विल्डर ने 1818 में झाक व उसके आस-पास के गाँवों के साथ एक समझौता किया। इस समझौते तहत मेरों ने कभी लूटपाट न करने की सहमति जताई लेकिन 1819 में विल्डर ने मेरवाड़ा क्षेत्र पर आक्रमण किया। इस घटना से मेर भडक गये ओर 1820 में झाक नामक स्थान पर मेरों ने पुलिस चैकियों को घेर लिया और वहाँ पर तैनात पुलिस कर्मियों की हत्या कर दी। 1822 में मेरो के दमन हेतु ’’मेरवाड़ा बटालियन’’ का गठन किया तथा इसका मुख्यालय ब्यावर में स्थापित किया।

भील विद्रोह-

  • मेवाड़ के महाराणा और अंग्रेजों के मध्य सहायक संधि (13 जनवरी, 1818) होने से अंग्रेजों को मेवाड़ के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का मौका मिल गया।
  • इसके कारण 1818 में भीलों द्वारा लिए जाने वाला रखवाली कर/चैकीदारी कर तथा बालाई/सुरक्षा कर पर नियंत्रण करने का प्रयास किया, तथा भीलों पर अनेक प्रतिबंध लगा दिये इस कारण भीलों को विद्रोह करने के लिए मजबूर किया।
  • राज्य में प्रथम भील विद्रोह उदयपुर राज्य में ही हुआ।

1836 में भीलों पर स्थाई नियन्त्रण के लिए अंग्रेजों की ’’मेरवाड़ा बटालियन पद्धति’’ के अनुसार ’’जोधपुर लीजन’’ नाम से एक सैनिक टुकडी का गठन किया। जिसका मुख्यालय अजमेर रखा गया, बाद में इसका मुख्यालय सिरोही के बड़गाँव नामक स्थान पर रखा गया।

एकी/भोमट आन्दोलन-

  • भील किसानों को भारी लाग-बाग और बेगार से मुक्त कराने के उद्देश्य से मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में भोमट भील/एकी आन्दोलन/मातृकुण्डिया आन्दोलन शुरू किया। भोमट आन्दोलन के दौरान मोतीलाल तेजावत ने मेवाड़ सरकार को ज्ञापन दिया जिसमें आदिवासी भीलों की 21 मांगो का जिक्र किया, इसको ’’मेवाड़ पुकार’’ की संज्ञा दी गई।
  • भीलों को एकता के सूत्र में बाँधे रखने के उद्देश्यट से मोती लाल तेजावत ने माद्रापट्टा और जलसा में भील आन्दोलन शुरू किया।
  • यह आन्दोलन भोमट क्षेत्र से शुरू हुआ इसलिए इसे भोमट भील आन्दोलन तथा भीलों को एकता सूत्र में बाँधने के उद्देश्यर से शुरू हुआ इसलिए इसे एकी आन्दोलन के नाम से जाना जाता है।

मोतीलाल तेजावत ने 1922 में लाग-बाग एवं जागीरदारों के जुल्मों के विरोध में विजयनगर राज्य के ’’नीमड़ा’’ नामक स्थान पर सम्मेलन बुलाया, जिसका सेना द्वारा दमन किया गया सैनिकों द्वारा की गई गोलीबारी में 1200 भील मारे गये इसे नीमड़ा हत्याकाण्ड या दूसरा जलियावाला बाग हत्याकाण्ड के नाम से जाना जाता है, तथा इस मामले को निपटाने के लिए सिरोही राज्य के दीवान रमाकांत मालवीय ने महात्मा गाँधी से मदद मांगी। गाँधी जी ने मणिलाल कोठारी को सिरोही भेजा तथा मोतीलाल तेजावत के आन्दोलन को उचित ठहराया। राजस्थान सेवा संघ के प्रयासों से इस आन्दोलन की गूंज ब्रिटेन की संसद उठी। इस आन्दोलन के दौरान सिरोही में हुए रोहिड़ा हत्याकाण्ड के बाद भीलों में हाकिम व हुकुम नहीं का नारा गूंजने लगा था। तेजावत ने भीलो में जागृति लाने हेतु ’’वनवासी संघ’’ की स्थापना की। तेजावत भीलों के ’’बावजी’’ के नाम प्रसिद्ध थे, क्योंकि भील जाति के लोग इनको अपना मसीहा मानते हैं। मोती लाल तेजावत को ’’मेवाड़ का गाँधी ’’ के नाम से जाना जाता है।

मोती लाल तेजावत:-

  • भील आन्दोलन के प्रणेता श्री मोती लाल तेजावत का जन्म 1886 में उदयपुर राज्य के फलासिया ठिकाने के कौल्यारी गाँव के ओसवाल जैन परिवार में हुआ। मोतीलाल तेजावत के पिता का नाम नन्दलाल व माता का नाम कैसरबाई था।
  • इनका विवाह लहर बाई नाम की महिला से हुआ। महात्मा गाँधी के कहने पर 1929 में मोतीलाल तेजावत ने आत्मसमर्पण किया था, आत्मसमर्पण के बाद तेजावत को उदयपुर में नजरबन्द रखा था। तेजावत का निधन 5 दिसम्बर 1963 को हुआ था।

मीणा आन्दोलन-

  • 1851 में उदयपुर रियासत के जहाजपुरा परगने के मीणाओं द्वारा ब्रिटिश शासन की सुधारवादी व्यवस्था के विरूद्ध आन्दोलन किया गया।
  • सुधारवादी व्यवस्था के नाम से मेवाड़ के महाराजा मीणाओं से धन वसूल करते थे, इसलिए मीणाओं ने उपद्रव किया।

अंग्रेजों की शिकायत पर मेवाड़ के महाराजा ने हाकिम मेहता रघुनाथसिंह की जगह अजीत सिंह मेहता को मीणा के विद्रोह को दबाने भेजा। उदयपुर की सेना, भील पल्टन, एकलिंग पल्टन, एजेन्ट टु जनरल, मेवाड़ का पॉलिटिकल एजेन्ट व हाड़ौती का पॉलिटिकल एजेन्ट संयुक्त रूप से सेना लेकर दिसम्बर, 1854 को जहाजपुरा पहुँचे, तथा अन्त में मीणाओं ने आत्मसमर्पण किया।

मीणा कॉपर्सः-

  • अंग्रेज सरकार व रियासत द्वारा भविष्य में मीणाओं द्वारा किसी आन्दोलन को देखते हुए 1855 ई. में जयपुर, अजमेर, बूँदी एवं मेवाड़ की सीमाओं पर स्थित देवली नामक स्थान पर एक सैनिक छावनी स्थापित की, तथा बाद इसका नाम देवली रेजीमेन्ट/मीणा बटालियन रखा तथा 1921 में इस सैनिक छावनी में 43वीं एरिनपुरा रेजीमेण्ट को मिलाकर इसका नाम ’’मीणा कॉपर्स’’ कर दिया।

कुछ समय के बाद सरकार ने मीणाओं को चोरी व डकैती के लिए जिम्मेदार ठहराया जाने लगा तथा उनके घरों की तलाशी व रेड डालने लगे तथा चोरी का सामान बरामद नहीं होने पर चैकीदार मीणाओं से माल की कीमत वसूल करने लगे। अपने ऊपर पड़े इस दण्ड की क्षतिपूर्ति के लिए मीणाओं ने चोरी व डकैती का ही सहारा लिया इससे अपराध की प्रवृति अधिक पनपने लगी तथा भारत सरकार ने 1924 में ’’क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’’ लागू किया। इस कानून के अन्तर्गत जरायम पेशा मानकर मीणा परिवार के 12 वर्ष तक के बच्चों को भी नजदीकी थाने में नाम दर्ज करवाना तथा रोजाना हाजिरी देने का प्रावधान रखा गया।

’’मीणा जाति सुधार कमेटी’’ नामक संस्था जिसने मीणाओं पर हो रहे अत्याचारों के विरूद्ध आवाज उठाई, इस कमेठी का गठन छोटूराम झरवाल, महादेव राम पबड़ी आदि मीणाओं ने किया। परन्तु कुछ सालों के बाद इस संस्था का रियासत द्वारा लोप कर दिया। मीणा जाति सुधार कमेटी का रियासत द्वारा लोप करने से मीणाओं में असंतोष बढ़ गया। जिसके फलस्वरूप 1933 में ’’मीणा क्षेत्रीय महासभा’’ का गठन किया। इस संस्था ने जरायम पेशा कानून को समाप्त करने की मांग की अतः सरकार ने इस संस्था का विघटन करवा दिया। 7 अप्रैल, 1944 को जैन मुनि मगन सागर जी के प्रयासों से मीणाओं का वृहद सम्मेलन नीम का थाना (सीकर) में आयोजित हुआ। इसके तहत ’’जयपुर राज्य मीणा सुधार समिति’’ नामक संस्था की स्थापना की तथा इसके अध्यक्ष बंशीधर शर्मा थे। इस समिति के द्वारा भी जरायम पेशा कानून को समाप्त करने की कोशिश की गई। 31 दिसम्बर, 1945 को अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् का उदयपुर में सम्मेलन हुआ राजेन्द्र कुमार व लक्ष्मीनारायण के प्रयासों से जरायम पेशा कानून रद्द करने का प्रस्ताव स्वीकृत हुआ।

ठक्कर बापा जो कि ’’पिछड़ी जातियों के मसीहा’’ के नाम से जाना जाता था, ने जयपुर रियासत के प्रधानमंत्री सर मिर्जा इस्माइल खाँ को पत्र लिख कर जरायम पेशा कानून रद्द करने की सलाह दी। इन सभी के प्रयत्नों से 4 मई, 1946 को जयपुर रियासत की सरकार द्वारा यह कानून रद्द कर दिया। 28 अक्टूबर, 1946 को एक विशाल सम्मेलन बागावास में आयोजित कर चैकीदार मीणाओं ने स्वेच्छा से चैकीदारी के काम से इस्तीफा दिया तथा इस दिन को ’’मुक्ति दिवस’’ मनाया गया। 1952 में जाकर जरायम पेशा कानून रद्द किया गया इस प्रकार 28 वर्षों के एक लम्बे संघर्ष का अन्त हुआ ।

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