राजस्थान में हस्तकला

राजस्थान में हस्तकला

मानव द्वारा अपने हाथों से कलात्मक एवं आकर्षण वस्तुएँ बनाना ही हस्तकला कहलाती हैं। राजस्थान में वर्तमान को सर्वाधिक विदेशी मुद्रा हस्तकला उद्योग से ही प्राप्त होती हैं। इस लिए राजस्थान सरकार ने इसके संर्वधन हेतु औद्योगिक नीतियाँ भी घोशित की। राजस्थान औद्योगिक नीति 1991 के अन्तर्गत ही राजस्थान की हस्त कला को संरक्षण दिया था। सर्वप्रथम औद्योगिक नीति की घोषण श्री भैंरूसिंह जी शेखावत ने की थी। 1998 की औद्योगिक नीति में राजस्थान सरकार द्वारा हस्तकला उद्योग की क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने के लिए प्रयास किया गया हैं। राजस्थान में हस्तकला को बढ़ावा देने तथा प्रोत्साहित करने के लिए उदयपुर में शिल्प ग्राम तथा जोधपुर में पाल शिल्पम ग्राम, जयपुर में जवाहर कला केन्द्र की स्थापना की गई। राजस्थान में हस्तकला का सबसे बड़ा केन्द्र ’बोरनाड़ा’ (जोधपुर) हैं।

  • राजस्थान की हस्तकला से संबंधित महत्वपूर्ण बाते है।
  • बन्धेज के लिये राजस्तरीय पुरस्कार श्री यासीन को मिल चका हैं।
  • कपडों की रंगाई का कार्य रंगरेजों व नीलगरों द्वारा किया जाता हैं।
  • जरी का काम जयपुर में महाराजा सवाई जयसिंह के द्वारा सूरत से लाया गया।
  • दाबू का काम मुख्यतः बगरू में होता हैं।
  • स्क्रीन प्रिटिंग व सिंथेटिक रंगों का प्रयोग सांगानेर में किया जाता हैं।
  • मीना का काम फाइनीशिया में सर्वप्रथम किया गया और यहीं से यह विश्व में फैला। राजस्थान में यह लाहौर से मानसिंह प्रथम द्वारा लाया गया।
  • मीनाकारी के लिए कैलाशचन्द्र एवं काशीनाथ को राष्ट्रीय पुरस्कार तथा कुदरत सिंह को पद्मश्री से अलंकृत किया गया।
  • धातु का काम कसरों अथवा ठठेरों द्वारा तथा लोहे का काम लुहारों द्वारा किया गया हैं।
  • लकड़ी के नक्काशीदार दरवाजे, चैखटें, कुर्सियाँ, झूले, पालने व तख्ते शेखावाटी के प्रसिद्ध हैं।
  • संगमरगर से मूर्तियाँ, सिंहासन, पशु-पक्षी, जालियाँ, सोफे व कुर्सियाँ बनाने के लिए भारत में जयपुर प्रसिद्ध हैं। यहाँ पोट्रेट (आकृति प्रतिमायें) भी यथावत् बनाई जाती हैं।
  • कुट्टी का काम करने वाले परिवार दिल्ली से जयपुर महाराजा रामसिंह के समय आए थे।
  • दरियों के कारखानों के लिए मिर्जापुर प्रसिद्ध हैं। मुस्लिम परिवार दरियाँ व गलीचों के काम में दक्ष हैं।
  • गलीचे बनाने की कला मुख्यतः ईरान से आई। वर्तमान में गलीचे बनाने की कला भारत में ईरान से आई। वर्तमान में गलीचे के लिए जयपुर प्रसिद्ध हैं, जबकि 19-20 वीं शताब्दी में बीकानेर जेल का गलीचा सर्वाधिक सुन्दर माना जाता था।
  • मिर्जा राजा जयसिंह को ईराक के शाह अब्बास द्वारा एक गलीचा भेंट किया, जिसमें बगीचा बना हुआ है, जो राजकीय संग्रहालय जयपुर में सुरक्षित हैं।
  • बड़ोपल के तीसरी शताब्दी के अति सुन्दर टेराकोटा बीकानेर संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
  • मोलेला कला मिट्टी से बनाई जाती हैं, इसके लिए नाथद्वारा के कुम्हार प्रसिद्ध हैं।
  • हाथी दाँत का काम व हाथी दाँत रखने के लिए वन्य जीवन सुरक्षा विभाग से लाइसेन्स लेना पड़ता हैं।
  • ब्ल्यू पॉटरी की परम्परा फारस व चीन में थी और यहीं से यह कला भारत में मुगलों के साथ आई जबकि जयपुर मे यह कला महाराजा मानसिंह प्रथम के समय में आई। ब्ल्यू पॉटरी के लिए जयपुर के कृपालसिंह को पद्मश्री से अलंकृत किया गया था।

राज्य की प्रमुख हस्तकलाएँ निम्नलिखित है-

कपड़ा बुनाई, रंगाई व छपाई:-

राजस्थान में कपड़ों पर हाथों से छपाई का कार्य परम्परा से चला आ रहा हैं, इसे ही छपाई कला या ब्लॉक प्रिंट कहा जाता हैं। राज्य में छपाई का कार्य करने वाले को छीप्पा कहा जाता हैं जो जाति विशेष के लोग होते हैं, जिनका कार्य कपड़ों पर छपाई करना होता हैं। कुछ विशेष स्थानों की छपाई कला प्रसिद्ध हैं –

  • भोड़ल (अभ्रक) की छपाई – भीलवाड़ा
  • बगरू प्रिंट – बगरू (जयपुर)
  • सांगानेरी प्रिंट – सांगानेर (जयपुर)
  • जाजम/दाबू प्रिंट – आकोला (चितौड़गढ़)
  • अजरक प्रिंट व मलीर प्रिंट – बाड़मेर

बगरू प्रिंट:- इस प्रिंट के अन्तर्गत लाल व काले रंग की विशेष छपाई होती हैं यह जयपुर के निकट बगरू कस्बे की प्रसिद्ध हैं। कपड़े पर हाथ के छपाई कार्य को ब्लॉक प्रिंटिग तथा कपड़े पर लकड़ी के छोपों (साँचो) से छपाई को ठप्पा या भांत कहते हैं। कपडों पर बारीक धागों से छोटी-छोटी गाँठे बांधने की गई कलाकरी को नग बाँधना कहते हैं।

सांगानेरी प्रिंट:- यहाँ की छपाई के अन्तर्गत प्राकृतिक रंगो का उपयोग किया जाता हैं। यहाँ छपाई करने वाले छीपों को नामदेवी छीपे कहते हैं तथा यहाँ की छपाई विश्वक प्रसिद्ध हैं। इस छपाई को प्रसिद्धि दिलाने तथा विश्वा बाजार में लाने का श्रेय राजसिको प्रबंध निदेशक श्री मुन्नालाल गोयल को जाता हैं। जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह ने वस्त्रों की रंगाई-छपाई की कला को प्रोत्साहन दिया।

जाजम प्रिंट/दाबू प्रिंट:- दाबू का अर्थ- दबाने से है। रंगाई-छपाई में जिस स्थान पर रंग नहीं चढ़ता उस स्थान को लेई या लुगदी कहा जाता हैं। यह प्रिंट आकोला (चितौड़गढ़) की प्रसिद्ध हैं। इसमें लाल व हरे रंग का प्रयोग किया जाता हैं। आकोला छपाई के घाघरे प्रसिद्ध हैं। राजस्थान में तीन प्रकार के दाबू प्रयुक्त है-

  • मैण (मोम) का दाबू – सवाई माधोपुर
  • मिट्टी का दाबू – बालोतरा (बाड़मेर)
  • गेहूँ के बींधण का दाबू – बगरू व सांगानेर

अजरक प्रिंट व मलीर प्रिंट:- इस प्रिंट में कत्थई एवं काले रंगो प्रयोग किया जाता हैं। इस छपाई के अन्तर्गत ज्योमितिक आकृतियों की प्रधानता होती हैं।

कपड़े पर छपाई व रंगाई कला:-

कपड़ों के ऊपर अलग-अलग तरह के रंगों का इस्तेमाल करना ही रंगाई कला कहलाती हैं तथा यह कार्य अधिकतर नीलगर व रंगरेजों द्वारा किया जाता है। राज्य में रंगाई कला निम्न प्रकार प्रसिद्ध है-

बंधेज कला:- यह कपड़े पर रंग चढ़ाई की तकनीक हैं जो राज्य में शेखावाटी, लाडनू, बगरू, जोधपुर, जयपुर, सुजानगढ़ आदि स्थानों की बंधेज कार्य के लिए प्रसिद्ध हैं। बंधेज कला का सर्वप्रथम प्रमाण हर्षचरित्र में मिलता हैं। बंधेज के कार्य के लिए सर्वप्रथम कपड़े पर जो अलंकरण बनाया जाता हैं जिसे टीपना कहते हैं। जोधपुर के तैय्यब खान को बंधेज के कार्य हेतु पद्मश्री से सम्मानित किया। बंधेज कार्य मुख्यतः चढ़वा जाति के लोगो के द्वारा किया जाता हैं।

पोमचा – सामान्यतयाः पोमचा जच्चा स्त्रियों के द्वारा पहना जाता हैं। यह पीले रंग का होता हैं तथा इसका हाशिया और मध्य भाग लाल रंग का होता हैं। राज्य में पोमचा वंश वृद्धि का प्रतीक होता है जो जयपुर का प्रसिद्ध हैं। लड़की के जन्म पर जच्चा स्त्रियों को गुलाबी एवं लड़के जन्म पर पीला पोमचा ओढ़ाया जाता हैं। चीड़ का पोमचा हाड़ौती क्षेत्र की विधवा महिला द्वारा ओढा जाता हैं जो कि काले रंग का होता हैं।

लहरिया:- राजस्थान में विवाहित स्त्रियों द्वारा श्रावण मास में तीज पर ओढ़ी जाने वाली लहरदार डिजाइन की ओढ़नी लहरिया कहलाती हैं। जयपुर का समुन्द्र लहर लहरिया सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं।

मोठड़ा:- जब लहरिये की लाइने एक-दूसरे को आपस में काटती हैं, तो मोठड़ा कहलाता हैं। राजस्थान में जोधपुर का मोठड़ा सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं।

चुनरी/धनक:- बंधेज के ऊपर बूँदनुमा डिजायन देना ही चुनरी कहलाती हैं, तथा इन बूँदो का आकार चैकोर होना ही धनक कहलाता हैं।

टाई एंड डाई:- इसमें बंधेज के अंतर्गत वस्त्रों को अधिक सुन्दर और आकर्षक बनाने के लिए बांधकर रंगा जाता हैं।

खड्डी की छपाई:- इसमें जयपुर और उदयपुर में लाल रंग की ओढ़नियों पर गोंद मिश्रित मिट्टी की छपाई की जाती हैं, उसके पश्चाइत् उसके लकड़ी के छापों से सोने और चाँदी के सुन्दर बेल-बूंटो की छपाई की जाती हैं।

जरी का काम:- महाराजा सवाई जयसिंह के समय जयपुर में प्रारम्भ, इस काम हेतु जयसिंह नामक कारीगर को सूरत से लाए थे।

कशीदा कला/कढ़ाई कला:-

विभिन्न रंगो के सूती व रेशमी धागों से कपड़ों पर विभिन्न प्रकार डिजायन तैयार करना ही कढ़ाई या कशीदा कला कहलाती हैं। राज्य की कशीदाकारी में मुख्यतयाः कमल, शेर, मोर, हाथी, ऊँट आदि की डिजाइनें बनायी जाती हैं। राज्य में अजमेर, जोधपुर, कोटा, जयपुर, उदयपुर आदि जिले कशीदाकारी के लिए प्रसिद्ध हैं। राज्य निम्न कशीदाकारी प्रसिद्ध हैं-

बाँकड़ी:- तार वाले बादले से बनी एक प्रकार की बेल जो स्त्रियाँ अपने दुपट्टों और पौषाकों पर लगाती है।

सतदानी:- बुनाई से अलंकरण बनाना। बुनाई में बने बिन्दुओं के आधार पर इन अलंकरणों को चैदानी, सतदानी और नौदानी कहते हैं। इन अलंकरणों की चैड़ाई कम होने पर ये लप्पा, लप्पी कहलाता हैं।

मुकेश:- सूती या रेशमी कपड़े पर बादले (चमकीला पदार्थ) से छोटे-छोटे बिन्दुओं की कढाई करना।

हुरमुचो:- कढ़ाई की विशेष शैली, इसके प्रसिद्ध कलाकार सरला सोनेजा, कविता चोइथानी और रचना रानी सोनेजा हैं। हुरमुचो सिंधी भाषा का शब्द हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ है, कपड़े पर धागों को गूंथकर सज्जा करना। यह शैली बाड़मेर में प्रचलित हैं।

जरदोजी वर्क:- धातु से बने चमकदार तारों से कपड़े पर कशीदाकारी करना।

मिरर वर्क:- छोटे-छोटे काँच के टुकड़ों से कपड़े पर रखकर उसके चारों ओर सूई एवं रंगीन रेशमी धागों से कढ़ाई की जाती हैं। यह कार्य सर्वाधिक बाड़मेर के चैहटन क्षेत्र में किया जाता हैं।

पेच वर्क:- कपडों को डिजायन में काटकर किया जाता हैं। सर्वाधिक शेखावाटी क्षेत्र का प्रसिद्ध हैं।

मसूरिया मलमल/कोटा डोरिया:- सूती धागों के साथ रेषमी धागों व जरी के काम से युक्त साड़ी कोटा डोरिया/मसूरिया मलमल साड़ी कहलाती है। जिसका प्रमुख केन्द्र कैथून (कोटा) हैं। इसको राजस्थान की बनारसी साड़ी कहते हैं। कोटा रियासत के दीवान झाला जालिम सिंह ने मैसूर के कुछ बनकरों को यहाँ बुलवया जिनमें से बुनकर महमूद ने मंसूरिया स्थान पर मंसूरिया साड़ी बनाने का काम किया। वर्तमान मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अपने पूर्व कार्यकाल में मसूरिया मलमल/कोटा डोरिया की साड़ियों को पहनकर मॉडलिंग की व खादी का प्रचार-प्रसार किया तथा 2007 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने वीमेन टूगेदर अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।

जेनब साड़ियाँ – श्रीमती जेनब (दीगोद-कोटा) के द्वारा निर्मित सूती साड़ियों को ही जेनब की साड़ियाँ कहते हैं। इन्हीं साड़ियों के निर्माण के लिए राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत किया जा चुका हैं।

वस्त्र अलंकरण की कला:-

  • वस्त्रों अधिक सुन्दर व आकर्षक बनाने के लिए उस पर कई प्रकार की डिजायन की जाती हैं, जैसे – गोटा, कढ़ाई, किरण, बाँकड़ी आदि लगाकर उसे सुन्दर व आकर्षक बनाया जाता हैं, जैसे लप्पा-लप्पी आदि। वस्त्र की बनाई में ही जब ताना सूत का हो और बाना तार बादले का हो तो वस्त्र की बनाई में ही अलंकार बनते हैं, इसे ही लप्पा कहते हैं।
  • लप्पा में बने बिंदुओं की गिनती के आधार पर इसे चैदानी, सतदानी, व नौदानी आदि नामों से जाना जाता हैं। लप्पा की चैड़ाई कम देने पर वह लप्पी कहलाता हैं। वस्त्र की सजावट के लिए गोटे का सर्वाधिक प्रयोग में लिया गया हैं।
  • राजस्थान में गोटे के प्रमुख केन्द्र खंडेला (सीकर), भिनाय (अजमेर) तथा जयपुर हैं। गोटा-पती से बने फल को बीजिया तथा एवं बेल चपाकली कहलाती है। गोटे का प्रकार- लप्पा, गोड़ा, लप्पी, किरण, बाँकड़ी, गोखरू, नक्षी (जयपुर)।

राजस्थान की प्रमुख कलाएँ व उनकी प्रसिद्धी का स्थान

  • जाजम प्रिन्ट – आकोला (चितौड़गढ़)
  • लहरिया एवं पोमचा – जयपुर व शेखावाटी
  • अजरक एवं मलीर प्रिंट – बाड़मेर
  • हाथीदाँत एवं चंदन पर – जयपुर
  • खुदाई एवं पेटिंग्स गलीचे – जयपुर, बीकानेर
  • मीनाकारी एवं कुंदन कार्य – जयपुर
  • पेपरमेशी (कुट्टी) का नाम – जयपुर, उदयपुर
  • सूंघनी नसवार – ब्यावर
  • लाख की पॉटरी, मोण्डें – बीकानेर
  • चुनरी – जोधपुर
  • लकड़ी के झूले – जोधपुर
  • रमकड़ा – गलियाकोट
  • कूपी – बीकानेर
  • मथैरणा कला – बीकानेर
  • मीरर्र का कार्य – जैसलमेर
  • पोकरण पॉटरी – पोकरण (जैसलमेर)
  • अम्ब्रेला – फालना (पाली)
  • टी. वी. – फालना (पाली)
  • रेडियो – फालना (पाली)
  • बेवाण – बस्सी (चितौड़)
  • सालावास कला – जोधपुर
  • कागजी पॉटरी (पेपरमेसी) – अलवर
  • पीला-पोमचा – शेखावाटी
  • गोटा बनाने की कला – शेखावाटी
  • सोप स्टोन के तराशे हुए खिलौने – डूँगरपुर
  • लाख का काम – जयपुर व जोधपुर
  • कोफ्तगिरी व तहनिषां का काम – जयपुर
  • लकड़ी की काँवड़ – बस्सी (चितौड़गढ़)
  • नांदणे (घाघरे की छपी फड़द) – भीलवाड़ा
  • पिछवाइयाँ – नाथद्वारा
  • ऊनी बरड़ी, पट्टू एवं लोई – जैसलमेर
  • पाव रजाई – जयपुर
  • खेसले – लेटा (जालौर)
  • ऊनी कम्बल – जैसलमेर व बीकानेर
  • मंसूरिया व कोटा डोरिया – कैथून व मांगरोल (कोटा)
  • पत्थर की मूर्तियाँ – जयपुर थानागाजी (अलवर)
  • मिनिएचर पेंटिग्स – जोधपुर, जयपुर, किशनगढ़
  • तारकषी के जेवर – नाथद्वारा
  • नमदे व दरियाँ – टोंक
  • गोटा किनारी – खण्डेला, सीकर, भिनाय (अजमेर)
  • गरासियों का फाग (ओढ़नी) – सोजत
  • रेजी- च‍क्र
  • पेचवर्क व चटापटी का कार्य – शेखावाटी
  • जस्ते की मूर्तियाँ व वस्तुएं – जोधपुर
  • दरियाँ – टाँकला (नागौर)
  • खेस – चैमू (जयपुर) व चुरू
  • पीतल पर मुरादाबादी – जयपुर व अलवर

नक्काशी का काम

  • मिट्टी के खिलौने – मोलेला (नाथद्वारा), बस्सी (चितौड़गढ़)
  • कृशिगत औजार – गजसिंहपुर (गंगानगर) एवं झोटवाड़ा, जयपुर
  • लकड़ी के खिलौने – उदयपुर, सवाई माधोपुर, जोधपुर
  • मटके, सुराही – रामसर (बीकानेर)
  • ब्ल्यू पॉटरी – जयपुर, नेवटा (सांगानेर)
  • चमड़े की मोजड़ियाँ – जोधपुर, जयपुर, नागौर
  • सुनहरी टैराकोटा – बीकानेर
  • थेवा कला – प्रतापगढ़
  • रामदेवजी के घोड़े – पोकरण (जैसलमेर)
  • ऊँट की खाल के कलात्मक – बीकानेर
  • कुप्पों पर भुनवती का काम (उस्ताकला)
  • स्टील/वुडन फर्नीचर – बीकानेर, चितौड़गढ़
  • लकड़ी का नक्काशीदार फर्नीचर – बाड़मेर
  • वुडन पेंटेड फर्नीचर – किशनगढ़, अजमेर
  • कागजी टैराकोटा – अलवर
  • कठपुतलियाँ – उदयपुर
  • फड़ चित्रण – शाहपुरा (भीलवाड़ा)
  • बादला एवं मोठड़े – जोधपुर
  • मलमल – मथानियाँ व तनसुख (जोधपुर)
  • कशीदे की जूतियाँ- जालौर, भीनमाल (कशीदायुक्त जूतियाँ)।
  • संयुक्त राष्ट्र संघ की एक परियोजना के तहत बड़ू गांव नागौर में कशीदे की जूतियाँ बनाई जा रही हैं।
  • हाथ करघा उद्योग भारत में सबसे महत्वपूर्ण लघु स्तर का उद्योग हैं।
  • राज्य में उदयपुर, कोटा व बाँसवाड़ा जिलों में कृत्रिम रेशम (टसर) के उत्पादन हेतु अर्जुन के वृक्ष लगाये जा रहे हैं।
  • जयपुर विश्व की सबसे बड़ी पन्ने की अंतराष्ट्रीय मंडी हैं।
  • विश्व का सबसे बड़ा चाँदी का पात्र सिटी पैलेस जयपुर में रखा गया हैं।
  • सोप स्टोन को तराश कर बनाये गये खिलौनों का काम रमकड़ा उद्योग कहलाता हैं। इसके लिए गलियाकोट (डूँगरपुर) का प्रसिद्ध हैं।

राज्य में हस्तशिल्प विकास की नई योजनाएँ

  • राजस्थान के हस्तशिल्प ने देश में ही नहीं, विदेशों में भी अपनी ख्याति अर्जित की हैं तथा इससे लाखों लोग प्रतिदिन रोजगार अर्जित करते हैं। रोजगार की दृष्टि से हस्तशिल्प राज्य में दस्तकारों की रोजी-रोटी का एक प्रमुख साधन बना हुआ हैं। हस्तशिल्प के विकास के लिए राज्य के लघु उद्योग निगम द्वारा एक महत्वाकांक्षी योजना बनाकर राज्य सरकार को प्रस्तुत की गई हैं।
  • इस योजना का मुख्य उद्देश्ये राज्य में विलुप्त हो रही हस्तकलाओं के विकास के लिए तकनीकी ज्ञान उपलब्ध कराना, विशिष्ट संस्थाओं और विशेषज्ञों के माध्यम से उत्पादों के विकास के लिए उच्च स्तर के नये डिजायन उपलब्ध कराना, कामगारों के घरों तक कच्चा माल उपलब्ध कराना तथा विपणन के क्षेत्र में संस्थागत सहायता प्रदान करना हैं।

प्रशिक्षण कार्यक्रम

  • राज्य में हस्तशिल्पद के कौशल को बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण एक सशक्त माध्यम हैं। यही कारण है कि राज्य में विलुप्त हो रही हैं हस्तकलाओं जैसे- जयपुर में लेथ पर बने हुए मारबल आइटम्स, सवाई माधोपुर क टाई एण्ड़ डाई, थानागाजी का मूर्ति शिल्पल, बालोतरा की वस्त्र छपाई, जयपुर में चमड़े की कलात्मक वस्तुओं के विकास के लिए राजस्थान लघु उद्योग निगम द्वारा वर्ष 1992 से प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया गया।
  • निगम की इस योजना के अन्र्तगत राज्य के हस्तशिल्पियों के द्वारा लगभग 50 प्रशिक्षणार्थियों को कलाओं में निपुण किया जाता हैं। इस योजना में प्रत्येक प्रशिक्षणार्थी को 250 रूपये निर्वाह भता तथा एक टूल किट निःशुल्क दिया जाता हैं। इसके अलावा राजस्थान लघु उद्योग निगम द्वारा विभिन्न स्थानों पर गलीचा, लाख, मीना ज्वैलरी हैण्ड ब्लॉक प्रिंटिग, ब्ल्यू पॉटरी, ब्रास आर्ट वेयर, ऊँट की खाल पर सुनहरी चित्रकारी के लिए भी प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाये जा रहें हैं।

हस्तशिल्प प्रोत्साहन एवं पुरस्कार

  • हस्तशिल्प का समुचित विकास हो इसके लिए निगम हमेशा ही प्रयत्नशील रहा हैं तथा हस्तशिल्प की बिक्री के लिए निगम द्वारा प्रदेश में तथा अन्य राज्यों में राजस्थली नाम से एम्पोरियम चलाये जा रहें हैं। निगम हस्तशिल्पियों की कला को प्रोत्साहन देने के लिए बहुत से कार्य करता हैं।
  • निगम द्वारा दस्तकारों एवं कलाकारों को हस्तशिल्पो सम्बन्धी आवश्यएक जानकारी, डिजायन विकास मार्गदर्शन तथा विपणन में सहयोग दिया जाता हैं। नई दिल्ली के प्रगति मैदान में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेला 2000 में राजस्थान मण्डल को रजत पुरस्कार प्राप्त हुआ था। राज्य में हस्तशिल्प कला को प्रोत्साहन देने के लिए निगम द्वारा शिल्पियों को राज्य स्तरीय पुरस्कार तथा दक्षता प्रमाण-पत्र देने की योजना शुरू की गई।
  • 1984 से प्रारम्भ इस योजना के अन्तर्गत शिल्पियों को ताम्रपत्र, अंगवस्त्र तथा पाँच हजार रूपये की नगद राशि का पुरस्कार दिया जाता हैं। रत्ननगरी जयपुर का कुन्दन जड़ाई के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान है। 3 अगस्त, 2001 को नई दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय पुरस्कार वितरण समारोह में श्री कृष्णकांत ने गुलाबी नगरी जयपुर में जन्मी तुलसी काला को राष्ट्रीय पुरस्कार 1998 प्रदान किया।

निर्यात को प्रोत्साहन

  • राज्य में हस्तशिल्प कला को निर्यात करने लिये निगम द्वारा आयात-निर्यात, विपणन तथा अन्य सुविधाओं की जानकारी देने के साथ-साथ सांगानेर (जयपुर) में स्थापित एयरकार्गो कॉम्पलैक्स के माध्यम से सीधे ही निर्यात की सुविधा कराई जा रही हैं।
  • मुम्बई तथा नोवाशोवा दोनों बन्दरगाहों पर आयात-निर्यात के निमित कस्टम द्वारा अनुमति के उपरान्त कन्टेनर के यातायात की सुविधायें उपलब्ध कराने हेतु सांगानेर (जयपुर) में अन्तर्देशीय कन्टेनर डिपों में अक्टूबर, 1986 में शुरू किया गया। सभी प्रकार के निर्यात सामान का संवहन अन्तर्देशीय कन्टेनर डिपो सांगानेर के माध्यम से किया जाता हैं।
  • यहाँ से मुख्य रूप से विभिन्न प्रकार की हस्तशिल्पा की वस्तुयें, सिले-सिलाऐं वस्त्र, हैडलास्ट मार्बल कलात्मक वस्तुऐं आदि निर्यात की जा रही हैं।

राजस्थान राज्य हस्तशिल्प विक्रय केन्द्र

1. एम. आई. रोड़, जयपुर

2. जलेबी चैक, आमेर (जयपुर)

3. बी-2, एम्पोरियम कॉम्पेलैक्स, बाबा खडकसिंह मार्ग, नई दिल्ली

4. 230, दादा भाई नोरोजी रोर्ड, फोर्ट, मुम्बई

5. 30 ई, जवाहरलाल नेहरू, रोड़, कोलकाता

6. ताजमहल कॉम्पलैक्स, आगरा

7. राजभवन रोड़, आबू

8. चेतक सर्किल, उदयपुऱ

9. आशोका होटल, चाणक्यपुरी, नई दिल्ली

10. होटल ओबेराय टावर्स, नरिमन पाइन्ट, मुम्बई

11. प्रगति मैदान, नई दिल्ली

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