राजस्थान में मीणा एवं भील जनजातियाँ

राजस्थान में मीणा एवं भील जनजातियाँ

2011 की जनगणना के अनुसार राजस्थान की कुल जनसंख्या का 13.5 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति का हैं।

  • सर्वाधिक जनजाति वाला जिला- उदयपुर,
  • न्यूनतम जनजाति वाला जिला- बीकानेर।
  • प्रतिशत के अनुसार सर्वाधिक जनजाति वाला जिला- बांसवाड़ा (76.4 प्रतिशत)
  • प्रतिशत के अनुसार न्यूनतम जनजाति वाला जिला- नागौर (0.3 प्रतिशत)

भारत में सर्वाधिक जनजातियां मध्यप्रदेश में तथा सबसे कम हरियाणा में हैं। प्रतिशत के अनुसार भारत में सर्वाधिक जनजातियां मिजोरम (94.5 प्रतिशत) तथा सबसे कम पंजाब में हैं। संख्या की दृष्टि से राजस्थान का भारत में छठा स्थान तथा प्रतिशत के अनुसार राजस्थान का भारत में तेरहवां स्थान हैं।

राजस्थान में प्रमुख रुप से 8 प्रकार की जनजातियां पाई जाती हैं।

  • मीणा
  • भील
  • गरासिया
  • सहरिया
  • डामोर
  • कंजर
  • सांसी
  • कथौड़ी।

मीणाः-

  • मीणा राजस्थान में रहने वाली जनजातियों में प्रथम स्थान पर हैं, मीणा राजस्थान में सर्वाधिक जयपुर व उसके बाद अलवर में रहते हैं। मीणा का शाब्दिक अर्थ- मछली या मत्स्य होता हैं।
  • मीणा अपनी उत्पति मत्स्य भगवान से ही मानते हैं, इसलिए मीणाओं में मछली निषेध हैं। मीणा जाति का पवित्र ग्रन्थ मीनपुराण हैं, जिसकी रचना मीणाओं के गुरु मगरमुनि ने की थी, इस ग्रन्थ में मीणाओं को 5200 गौत्र व 24 खांपों में विभाजित किया गया हैं। मीणाओं के 2 भाग हैं- 1. जमींदार 2. चैकीदार।

जमींदारः- खेती व पशुपालन करने वाले मीणा लोग।

चैकीदारः- राजाओं के कोषागारों व महलों की रक्षा करने वाले मीणा लोग।

दक्षिण के मीणाओं को निम्न कुल का मानते हैं, जिन्हें ढ़ेडिया मीणा कहते हैं।

मीणाओं के अन्य समूह भी हैं-

  • रावत मीणाः- स्वर्ण हिन्दू राजपूतों से संबंधित, सर्वाधिक अजमेर में।
  • आद मीणाः- ऊशाहार वंश के मिश्रित मीणा।
  • चैथिया मीणाः- गाँव की रक्षा हेतु चैथ वसूल करने वाले मीणा।
  • सूरतेवाल मीणाः– मीणा जाति के पुरूष द्वारा दूसरी जाति की स्त्री से विवाह कर उनसे उत्पन्न मीणा।
  • ठेढ़िया मीणाः- गोड़वाड़ क्षेत्र के मीणा।
  • भील मीणाः- भीलों के सम्पर्क में आने वाले मीणा।

मीणाओं के मुखिया को पटेल कहते हैं, मीणाओं के कच्चे घरों को छपरा या टापरा कहते हैं। मीणाओं के कच्चे घरों में मोरनी मांडणा कार्यक्रम होता हैं। मीणाओं में पंचायत को चौरासी कहा जाता हैं। मीणा जनजातियों में सबसे शिक्षित जनजाति हैं। इनका प्रिय पक्षी मोर होता हैं तथा मीणाओं का इष्टदेव भूरिया बाबा/गौतमेश्वर हैं। मीणाओं का प्रयागराज रामेश्वंरम् धाम (सवाईमाधोपुर) हैं, यह मेला चम्बल, बनास व सीप नदियों के त्रिवेणी संगम पर भरता हैं। मीणा रैवासा गाँव, सीकर में स्थित जीणमाता की उपासना करते हैं, मीणाओं में बालविवाह होते हैं।

ताराभांत की ओढ़नी का सर्वाधिक प्रचलन मीणाओं में हैं। टॉड के अनुसार मीणाओं का मूलनिवास कालीखोह पर्वतमाला (अजमेर से आगरा) के बीच हैं। कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया के अनुसार मीणाओं में द्रविड़ों से पूर्व का रक्त समूह हैं। मीणा जनजाति के लोग गोवर्धन पर्व पर शस्त्रों का प्रयोग नहीं करते हैं।

मीणाओं की प्रथाएं

  • झगड़ा प्रथा- कोई पुरूष किसी विवाहित स्त्री से विवाह करे तो उसके पूर्व पति को राशि देनी पड़ती हैं, उसे ‘झगड़ा राशि’ कहते हैं।
  • छेड़ा फाड़ना- मीणाओं में पति-पत्नी के बीच अनबन होने के बाद गाँव की पंचायत के बीच पति पत्नी के दुपट्टे का कुछ हिस्सा फाड़कर पत्नी के हाथ में देता है, जिसे छेड़ा फाड़ना कहा जाता हैं। इसके साथ ही पति पत्नी का तलाक हो जाता हैं, तथा वह औरत वहीं से सिर पर मटका रखकर रवाना होती हैं और जो भी रास्ते में उसका मटका उतारता हैं, वही उसका भावी पति बन जाता हैं।
  • नाता प्रथा- विवाहित महिला अपने पहले पति को छोड़कर किसी दूसरे पति के साथ रहने लग जाये तो उसे ’’नाता’’ कहते हैं। नाता एक प्रकार का सम्बन्ध है, न कि विवाह का प्रकार।
  • आटा साटा प्रथा- लड़की के बदले लड़के की शादी करवाना ही ’’आटा साटा’’ कहलाती हैं।
  • मीणाओं में अगर बड़े भाई की मृत्यु हो जाती हैं तो उसका छोटा भाई बड़े भाई की पत्नी से विवाह कर लेता हैं।
  • बढ़ालिया प्रथा- वैवाहिक सम्बन्धों में मध्यस्था करने वाले व्यक्ति को ’’बढ़ालिया’’ कहा जाता हैं।
  • गोटन- मीणाओं में मित्रों का समूह कहलाता हैं।
  • कीकमार- मीणा जनजाति के लोग संकट के समय मुख से जोर की आवाज के साथ हथेली मारते हुए चिल्लाते हैं।
  • गेली- मीणा जनजाति में युवक के हाथ में बंधी लकड़ी को कहते हैं।

मीणाओं में बंटाईदार कृषि का प्रचलन हैं-

  • हासिल बट्ठ- इस व्यवस्था में भूमि स्वामी केवल राजस्व देता हैं और उसके बदले में एक तिहाई उपज लेता हैं।
  • हाड़ी बट्ठ- इस व्यवस्था में भूमि स्वामी राजस्व देता हैं और इसके अतिरिक्त बीज व सिंचाई की व्यवस्था भी करता हैं।
  • छोटा बट्ठ- बंटाईदारी व्यवस्था में भूमि स्वामी जोतने के लिए केवल भूमि देता हैं और उसके बदले में एक चैथाई पैदावार लेता हैं।

जरायम पेशा कानून के विरूद्ध अप्रैल 1944 में मुनि मगर सागर की अध्यक्षता में नीम का थाना (सीकर) में मीणाओं का सम्मेलन हुआ। 1924 में इस जनजाति को अपराधी जनजाति की संज्ञा दी गई तथा इस जनजाति पर कठोर निगरानी रखी जाने लगी थी। 1952 में जरायम पेशा कानून समाप्त हुआ ।

भील-

  • यह राजस्थान की सबसे प्राचीन जनजाति हैं, जनजातियों में मीणाओं के बाद दूसरा स्थान इसी जनजाति का हैं। यह जनजाति राजस्थान में सर्वाधिक उदयपुर तथा इसके पश्चाणत बांसवाड़ा में निवास करती हैं। भील की उत्पति बील से हुई तथा बील का अर्थ होता हैं- ‘‘तीर चलाने वाला ’’
  • भील स्वयं को महादेव की संतान मानते हैं। टॉड ने भीलों को वन पुत्र कहा था। मानव शास्त्री भीलों को मुण्डा जाति के वंशज मानते हैं। WILD TRIBE OF INDIA नामक पुस्तक में रोने ने भीलों का मूल निवास मारवाड़ को बताया था। भील जाति में घर को ‘कू’ तथा मुखिया को गमेती कहते हैं।
  • भीलों के बहुत से झोंपड़ों को पाल कहते हैं तथा पाल का मुखिया पालकी कहलाता हैं। मौहल्ला को फंला कहते हैं। भील जाति के लोग काण्डी शब्द को अपमानसूचक मानते हैं (काण्डी का अर्थ- तीर चलाने वाला)। इस जाति में पाडा शब्द को सम्मानसूचक माना जाता हैं,(पाडा का अर्थ-शक्तिशाली)।
  • भीलों में पथरक्षक देवी पथवारी तथा वैवाहिक देवी भराड़ी कहलाती हैं। भीलों का पवित्र वृक्ष महुवा होता हैं, महुवा के फूलों से भील ताड़ी नामक पेय पदार्थ बनाते हैं यह पेय पदार्थ भीलों का सोमरस कहलाता हैं। भील आबादी वाला क्षेत्र भोमट या मगरा कहलाता हैं। भीलों का रणघोष फाइरे- फाइरे होता हैं। मार्गदर्शक भील बोलावा कहलाता हैं। भीलों का प्रिय भोजन मक्का की रोटी व कांदो (प्याज) होती हैं।
  • भीलों में तंग धोती को ढ़ेपाड़ा, ढ़ीली धोती को खोयतू, सिर का साफा पोत्या, अंगोछा को फालू, महिलाओं के अधोवस्त्र कछाबू, सिर पर बांधने का वस्त्र चीरा तथा भीलों का मुख्य पहनावा अंगरूठी कहलाता हैं। इस जनजाति में (शिशु का नामकरण जिस दिन या महिने में बच्चे का जन्म होता हैं उसी दिन या महिने के नाम पर रख दिया जाता हैं। महिलाओं द्वारा शादी के अवसर पर पहनी जाने वाली लाल रंग साड़ी सिन्दूरी कहलाती हैं तथा पीले रंग की साड़ी पीरीया कहलाती हैं।
  • भीलों में उपचार करने की विधि को डाम, विवाह को लीलामोरिया, मृत्युभोज की परम्परा काट्टा, मैदानी भागों पर की जाने वाली खेती दजिया तथा पहाड़ों की ढ़ालों पर वनों को जलाकर की जाने वाली खेती चिमाता कहलाती हैं। भीलों का कुलदेवता टोटम होता हैं।

बांसवाड़ा जिले में भील जनजाति के गाँव के मुखिया को ‘रावत’ कहते हैं तथा भीलों के गाँवों का सबसे बुजुर्ग व्यक्ति डाहल कहलाता हैं। वस्त्रों के आधार पर भीलों को 2 भागों में बांटा गया हैं।

  • पोतीद्दा भील- ये भील धोती, बंडी व पगड़ी से शरीर को ढ़कते हैं।
  • लंगोटिया भील- ये भील कमर में एक लंगोटी पहनते हैं।

मेवाड़ के गुहिल वंश का भीलों से बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध था। भीलों द्वारा महाराणा प्रताप को दिया गया सहयोग आज भी स्मरणीय हैं। मेवाड़ के राज्य चिन्ह में चितौड़ के किले के एक ओर राजपूत राजा तथा दूसरी ओर भील राजा पूंजा का चित्र हैं। गुहिल वंश के शासक उन्दरी गाँव के भील से अपना राज्याभिषेक करवाते थे।

भीलों के बारे में महत्वपूर्ण शब्दावली-

  • होवण- भीलों द्वारा प्राकृतिक प्रकोप व दैनिक प्रकोपों से बचने के लिए इस देवी की पूजा की जाति हैं।
  • खोड़ियाल- अपंग व विकलांग भीलों की मनोकामना की पूर्ति यह देवी करती हैं।
  • भराड़ी- भीलों की वैवाहिक देवी भराड़ी हैं।
  • चीराबावसी- किसी पूर्वज की लकड़ी की मूर्ति बनाकर पूजा की जाती हैं।
  • डागला- भीलों का मचाचनुमा छपरा, जिसके उपर अनाज या चारा सुखाते हैं।
  • ढालिया- भीलों के घरों के बाहर का बरामदा ।
  • हाथीवेड़ो- पीपल या बांस के पेड़ को साक्षी मानकर विवाह करने की परम्परा।
  • भगोरिया- इस त्योंहार पर भील युवक अपना जीवनसाथी चुनते हैं।
  • पाखरिया- सैनिक के घोड़े को मारने वाला भील।
  • हमसीढ़ो- भील स्त्री-पुरूष द्वारा गाया जाने वाला सामूहिक गीत।
  • देवाल ढ़ोल- गाँव में बीमारी का सन्देश देने वाला ढ़ोल।
  • नाचनिया ढ़ोल- विवाह या मांगलिक अवसरों पर बजाया जाने वाला ढ़ोल।
  • कोदरा- भीलों द्वारा इस्तमाल किया गया जंगली अनाज कोदरा कहलाता हैं।
  • विला- भीलों के मन्दिरों में पुजारी को कहते हैं।
  • राड खेलना- भीलूड़ी (डूंगरपुर) में भीलों द्वारा पत्थरों से खेली जाने वाली होली को कहते हैं।
  • राड़- गलियाकोट व सागवाड़ा (डूंगरपुर) में भील गोबर के कण्डो से राड़ खेलते हैं।
  • नोतरा- भील जनजाति में शादी के समय वर पक्ष द्वारा वधू पक्ष को दी जाने वाली राशि को कहते हैं।
  • सिरा-चैकली / चीरा बावसी- भील जनजाति में व्यक्ति के मरने के बाद घर या खेत में उसकी पत्थर की मूर्ति बनाकर स्थापना करते हैं, उसे चीरा बावसी कहते हैं।
  • आगड़- पुरूष का सफेद स्मारक आगड़ कहलाता हैं।
  • मातलोक- स्त्रियों का काले पत्थरों से बना स्मारक मातलोक कहलाता हैं।
  • अटक- भीलों की एक गौत्र।
  • पारड़ा- इस क्षेत्र से भील अपनी उत्पति गुर्जरों से मानते हैं।
  • मसार- कल्याणपुर के ओवरी ग्राम के भील मसार कहलाते हैं।
  • गरासिया भील- जो सिसोदिया भीलों में विवाह कर उन्हीं में शरीक हो गए।
  • पारगी- महुवाड़ा, खेजड़ और सराड़ा क्षेत्र में भील पारगी कहलाते हैं।
  • सिसोदिया- देपरा के भील अपने आप को सिसोदिया कहते हैं।
  • अहारी- बीलक भील हाड़ा चैहान माने जाते हैं। यह अहारी नाम से जाने जाते हैं।
  • कागदर – यहाँ के भील राठौड़ कहलाते हैं।
  • नठारा व बालापाल- यहाँ के भील कटार चैहान कहे जाते हैं।
  • दापा – भीलों में कन्या का वर पक्ष कन्या के पिता को मूल्य देता हैं जिसे दापा कहा जाता हैं।
  • सेमल- भीलों में विवाह के समय अपने घर के बाहर इस पौधे को लगाते हैं।
  • बराड़- मध्यकाल में भीलों से वसूला जाने वाला कर।
  • राजस संघ- भीलों को उनकी पैदावार का उचित लाभ दिलाने हेतु उदयपुर में कार्यरत संस्था।
  • होली- भीलों का सबसे महत्वपूर्ण त्योंहार।
  • भगत – भीलों में धार्मिक संस्कार सम्पन्न करवाने वाला व्यक्ति भगत कहलाता हैं।
  • गांडसे – भीलों के मृत्युभोज संस्कारों को सम्पन्न करक दान-दक्षिणा प्राप्त करने वाला व्यक्ति।

विशेष- माणिक्यलाल आदिम जाति शोध संस्थान उदयपुर भीलों की संस्कृति को बचाये रखने का कार्य करती हैं।

भीलों में भगत पंथ की परम्परा का सूत्रपात मानगढ़ धाम (बांसवाड़ा) में गोविन्द गुरु ने दिया था।

  • केसरियानाथ जी/ कालाजी- धुलेव गाँव (उदयपुर)-भील जनजाति के लोग कसम के पक्के होते हैं तथा केसरिया नाथ के चढ़ी केसर का पानी पीकर झूठी कसम नहीं खाते हैं।
  • बेणेश्वर मेला- नवाटापुरा (डूंगरपुर) यह मेला सोम, माही व जाखम नदियों के संगम पर माघ पूर्णिमा को भरता हैं। इसे भीलों का कुम्भ/भीलों का पुष्कर/आदिवासियों का कुम्भ कहते हैं। इसी मेले में भील जनजाति के लोग अपना जीवन साथी चुनते हैं।

भील जनजाति के नृत्य

गवरी, युद्ध, नेजा, सूकर, हुन्दरी, मांदल, द्विचक्री, बेरीहाल, झूमर, शिकार आदि।

झूमर- गुजरात के घरबा नृत्य से मिलता जुलता नृत्य हैं।

द्विचक्री नृत्य के 3 भाग होते हैं-

पालीनोच- भीलों में विवाह के अवसर पर किए जाने वाले स्त्री पुरूष के सामूहिक युगल नृत्य को पालीनोच कहते हैं।

साद- भीलों में आध्यात्मिक भावना प्रधान नृत्य।

गोसाई- जोगणिया माता को समर्पित भीलों का नृत्य ।

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