राजस्थान की प्रमुख जनजातियाँ

राजस्थान की प्रमुख जनजातियाँ

गरासिया जनजाति-

  • गरासिया राजस्थान की तीसरी सर्वाधिक संख्या वाली जनजाति हैं। गरासिया राजस्थान में सर्वाधिक सिरोही (आबूरोड़) में तथा उसके बाद उदयपुर में निवास करते हैं। यह जनजाति अपनी उत्पति माउण्ट आबू के अग्निकुण्ड से मानती हैं तथा स्वयं को चैहान राजपूतों का वंशज मानती हैं। राजस्थान में गरसियों का मूल स्थान आबूरोड़ का भाखर क्षेत्र हैं। कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार गरासिया शब्द की उत्पति गवास/गवाक्ष शब्द से हुई है जिसका अर्थ हैं – सर्वेन्ट।
  • इस जनजाति का पवित्र स्थान नक्की झील हैं जहां पर यह जनजाति अपने पूर्वजों की अस्थियों का विसर्जन करती हैं। जनजातियों में सबसे ज्यादा अंधविश्वासी यही जनजाति हैं। यह एकमात्र ऐसी जनजाति हैं जिसमें प्रेम- विवाह होते हैं। इस जनजाति में घर को घैर, बिखरे गाँव को पाल, गाँव के मुखिया को सहलोत/पालवी कहते हैं। इस जनजाति में गाँव की छोटी सी इकाई को फालिया कहा जाता हैं।
  • इस जनजाति में परिवार पितृसतात्मक व एकाकी में विभक्त होता हैं। यह जनजाति लोक देवता घोड़ा बावसी की पूजा करती हैं। गरासिया जनजाति में सम्मानजनक व्यक्ति मृत्यु के बाद उसकी याद में बनाया गया स्मारक हुर्रे या मोगी कहलाता हैं। गरासिया जनजाति का आदर्ष पक्षी मोर होता हैं। यह जनजाति सफेद पशु को पवित्र मानती हैं तथा इस जनजाति में बन्दर का मांस लोकप्रिय हैं।
  • इस जनजाति में कृषि के सामूहिक रूप को थावरी कहते हैं तथा अनाज रखने की कोठियों को सोहरा कहते हैं और घर के बाहर बरामदे को ओसरा कहते हैं। इस जनजाति में अतिथि को माण्ड कहा जाता हैं।
  • इस जनजाति में अन्तिम संस्कार 12 वें दिन किया जाता हैं। गरासिया जनजाति की बोली भीली से मिलती जुलती हैं लेकिन इसमें गुजराती व मराठी बोली के भी कुछ शब्द शामिल हैं। इस जनजाति में त्योंहारों की शुरूआत आखातीज से होती हैं लेकिन इस जनजाति के मुख्य त्योंहार होली व गणगौर हैं।
  • इस जनजाति का सबसे बड़ा मेला मनखारो मेला (सियावा गाँव- सिरोही) व दूसरा मुख्य मेला घोटिया अम्बा का मेला हैं। इस जनजाति में शिव, भैरव व दुर्गा की भी पूजा होती हैं। गरासिया लोगों को वस्त्रों पर कषीदीकारी बहुत ही पसन्द हैं। यह जनजाति अत्यन्त भोली- भाली, ईमानदार, वचन की पक्की व मेहनती होती हैं।

यह जनजाति 2 भागों में विभाजित हैं- भील गरासिया व गमेती गरासिया ।

  • भील गरासिया- गरासिया पुरूष भील स्त्री से विवाह करने पर भील गरासिया कहलाता हैं।
  • गमेती गरासिया- भील पुरूष गरासिया स्त्री से विवाह करने पर गमेती गरासिया कहलाता हैं।

इस जनजाति के तीन उपवर्ग होते हैं-

  • मोटी नियात- ये गरासियों में सबसे उच्च वर्ग के होते हैं जो अपने आप को बाबोर हाइया कहते हैं।
  • नेनकी नियात- ये गरासियों में मध्ययम श्रेणी के होते हैं जो माडेरिया कहलाते हैं।
  • निचली नियात- ये निम्न श्रेणी के गरासिया होते हैं।

गरासिया जनजाति में विवाह के प्रकार-

  • ताणना विवाह- इसमें वर वधू को स्वंय पसन्द कर लेते हैं तथा इसमें सगाई, चंवरी व फेरों की रस्में नहीं होती हैं।
  • पहरावना- इस विवाह में ब्राह्मण के बिना ही नाम मात्र के फेरे होते हैं।
  • मोर बंधिया- यह विवाह पूरी रस्मों के साथ ब्रह्म विवाह जैसा होता हैं, इसमें वर वधू के मोड़ बांधकर चंवरी में फेरे लेकर विवाह किया जाता है।
  • मेलबो विवाह- इस विवाह के खर्च से बचने के लिए दुल्हन को दूल्हे के घर पर छोड़ दिया जाता हैं।
  • खेवणा/नाता विवाह- इसमें विवाहित महिला किसी दूसरे व्यक्ति के साथ रहने लगती हैं।
  • सेवा- यह घर जवांई की प्रथा होती हैं।

विशेष – इस जनजाति में कुवांरी लड़कियां लाख की चूड़िया पहनती हैं तथा विवाहित स्त्रियां हाथीदांत की चूड़िया पहनती हैं।

गरासियों से सम्बन्धित महत्वपूर्ण शब्दावली-

  • दापा- वर पक्ष द्वारा वधू पक्ष को दिया जाने वाला मूल्य दापा कहलाता हैं।
  • खाटला- इस जनजाति में चारपाई को खाटला कहा जाता हैं।
  • फाग- गरासिया औरतों के वस्त्र फाग कहलाते हैं।
  • माटला – मटकी को माटला कहा जाता हैं।
  • घेंटी- आटा पीसने की हाथ से चलाई जाने वाली चक्की को कहते हैं।
  • झुलकी- गरासिया पुरूषों की कमीज को कहा जाता हैं।
  • डूबकी- इस शगुनी चिड़िया की पूजा गरासिया मकर सक्रांति के अवसर पर करते हैं।
  • अनाला मोरयु प्रथा- नवजात शिशु के नाल को काटकर गाड़ने की प्रथा कहलाती हैं।
  • कांदिया/मेक/गेह- गरासियों के मृत्युभोज को कहते हैं।
  • हेलरू- गरासिया जनजाति के विकास के लिए संचालित सहकारी संस्था ।
  • आणा करना- गरासिया में विधवा विवाह को आणा करना या नातरा करना कहते हैं।
  • खेवणा- विवाहिता स्त्री द्वारा अपने प्रेमी के साथ भागकर विवाह करना।
  • ‘हेलो लेवे’ व ‘पैसा ओछा पेरिया’- गरासियों के प्रसिद्ध लोक गीत ।
  • भाटली- हाथों में पहने जाने वाला गहना।
  • पत्रला/हंसली- गले में पहने जाने वाला आभूषण।
  • दामणी/झूले – गरासिया महिलाओं में बालों में पहने जाने वाला गहना।

गरासिया जनजाति में प्रचलित नृत्य-

वालर, लूर, मांदल, मोरिया, रायण, कूद, गौर, गवां, जवारा/जावड़़ा आदि।
विशेष – गरासियों का मूल स्थान चैन पारिन (बड़ौदा, गुजरात) को माना जाता हैं। यह जनजाति अपनी आजीविका कृषि व पशुपालन से कमाती हैं।

सहरिया जनजाति-

  • सहरिया राजस्थान की सर्वाधिक पिछड़ी हुई तथा एक वनवासी जनजाति हैं। यह जनजाति राजस्थान में सर्वाधिक निवास किशनगंज व शाहबाद (बांरा) में करती हैं। सहरिया की उत्पति फारसी के सहर शब्द से हुई है जिसका अर्थ होता हैं – वनों में निवास करने वाले। भारत सरकार ने राजस्थान की एकमात्र इसी जनजाति को आदिम जनजाति में रखा हैं।
  • इस जनजाति में बस्ती को सहराना कहते हैं। सहरिया गाँव की सबसे छोटी इकाई फलां कहलाती हैं। इस जाति में बहु पत्नी प्रथा का प्रचलन हैं। ज्वार मुख्य कृषि की उपज हैं तथा इनका मुख्य भोजन भी हैं। सहरिया जनजाति में होली के अवसर पर फाग व राई नृत्य और दीपावली के अवसर पर हिन्डा गाने का प्रचलन हैं। इस जनजाति में गाँव शहरोल तथा मुखिया को कोतवाल कहते हैं। सहरिया जनजाति में झौंपड़ी को गोपना/कोरूआ/टोपा कहते हैं।
  • इस जनजाति का आदिगुरू वाल्मीकि, मुख्य देवता तेजाजी तथा कुलदेवी कोंडियां देवी हैं। धारी संस्कार का सम्बन्ध इसी जनजाति से हैं, इस संस्कार के माध्यम से यह जनजाति पुर्नजन्म का अनुमान लगाते हैं। यह जनजाति राजस्थान की सबसे शर्मिली जनजाति हैं तथा भीख नहीं मांगती हैं। राज्य सरकार द्वारा सहरिया विकास कार्यक्रम चलाया गया जा रहा हैं। सहरियों की अंगरखी को सलूका व तंग धोती को पंछा, साफे को खपट्टा कहते हैं। विवाहित महिलाओं द्वारा पहना जाने वाला वस्त्र रेजा कहलाता हैं। सहरियों में विवाह के सभी संस्कार हिन्दू समाज की भांति होते हैं, केवल फेरों का भिन्न तरीका हैं।
  • इस समुदाय में नारी को व्यवहारिक रूप से पूर्ण प्राथमिकता एवं स्वतन्त्रता हैं। सहरिया में लैंगी नामक खेल प्रचलित हैं। महुवा के फल से बनाई गई शराब इस जनजाति के लोग पीते हैं। इस जनजाति के पुरूष वर्ग में गोदना वर्जित हैं।

विशेष – सहरिया जनजाति का मुख्य मेला हाड़ौती अंचल में लगने वाला सीताबाड़ी (बांरा) का मेला हैं। ‘‘सीताबाड़ी के मेले को सहरिया जनजाति का कुम्भ‘‘ कहते हैं।

संकल्प संस्था- मामूनी की संकल्प संस्था सहरिया जनजाति में जनजागृति हेतु कार्यरत संस्था हैं।

मां बाड़ी योजना- शाहबाद व किशगढ़ में सहरिया जनजाति को शि‍क्षा उपलब्‍ध  करवाने के लिए 2000 ई. में इस योजना की शुरूआत की गई थी।

सहरिया जनजाति के प्र्रमुख नृत्य-

बंगल- इस जनजाति में सामूहिक रूप से किया जाने वाला नृत्य।
इन्दरपरी नृत्य- यह नृत्य पुरूष अपने मुंह पर अलग- अलग मुखौटे लगाकर करते हैं।
झेला नृत्य- आषाढ़ माह में फसल की पकाई के वक्त युगल रूप से यह नृत्य किया जाता हैं।शिकारी, लंहगी व सांग आदि नृत्य भी सहरिया जनजाति में किये जाते हैं।

सहरिया जनजाति के बारे में महत्वपूर्ण बिन्दू-

कुसिला- घरेलू सामान रखने की कोठरी।
भडेरी- अनाज रखने की कोठरी।

कंजर जनजाति-

  • कंजर शब्द की उत्पति संस्कृत के काननचार शब्द से हुई हैं, जिसका अर्थ होता हैं- जंगल में विचरण करने वाला। यह जनजाति सर्वाधिक निवास हाड़ौती क्षेत्र में करती हैं हाड़ौती में यह जनजाति सर्वाधिक कोटा में निवास करती हैं। इस जनजाति की खास विशेषता यह होती है कि इस जनजाति में एकता पाई जाती हैं तथा यह जनजाति सर्वाधिक बोलती हैं।
  • इस जनजाति का प्रमुख व्यवसाय चोरी करना होता हैं। यह एक घुम्मकड़ व खानाबदोष जनजाति हैं। चोरी करने से पहले इस जनजाति के लोग मन्दिर में जाकर एक रस्म अदा करते हैं जिसे पाती मांगना कहते हैं। इस जनजाति के लोग चैथमाता व हनुमान जी के भक्त होते हैं। चैथ माता इस जनजाति की आराध्य देवी हैं जबकि इस जनजाति की कुलदेवी जोगणिया माता (बेंगू- चितौड़) हैं।
  • इस जनजाति का मुखिया पटेल कहलाता हैं। इनके घरों में पीछे की दिशा में खिड़कियों में दरवाजे नहीं होते हैं। यह जनजाति हाकिम राजा का प्याला लेकर झूठी कसम नहीं खाती हैं, (हनुमान जी की झूठी कसम नहीं खाते हैं)। सभी जनजातियों में इस जनजाति की महिलाएं सबसे सुन्दर होती हैं जो चकरी नृत्य करने में माहिर होती हैं। नृत्य करते वक्त महिलाओं द्वारा खुसनी नामक चुस्त पयजामा पहना जाता हैं।
  • इस जनजाति के मुख्य वाद्य यन्त्र ढ़ोलक व मंजीरा होते हैं। इस जनजाति में पत्नीयों की अदला- बदली चलती हैं, जिसे आटिया- साठिया कहते हैं। कंजर जनजाति में मरे हुए व्यक्ति के मुंह में शराब डालते हैं तथा मृतक को गाढ़ते हैं। इस जनजाति में राष्ट्रीय पक्षी मोर का मांस अत्यधिक प्रसिद्ध हैं।

विशेष –  जोेगणिया माता (बेंगू- चितौड़) व रक्तदंजी माता (संतूर- बूंदी) को कंजर जनजाति के लोग पूजते हैं।

कथौड़ी जनजाति –

  • यह मूलतः महाराष्ट्र की जनजाति हैं तथा राजस्थान में सर्वाधिक उदयपुर (कोटड़ा, झाडोल व सराड़ा) में रहती हैं। इस जनजाति की महिलाएं मराठी अन्दाज में साड़ी पहनती हैं जिसे फड़का कहते हैं। कथौड़ी जनजाति में पति- पत्नी एक साथ बैठकर शराब पीते हैं लेकिन इस जनजाति में दूध का सेवन नहीं किया जाता हैं।
  • इस जनजाति का प्रमुख व्यवसाय खैर के तनों से हांडी प्रणाली द्वारा कत्था तैयार करना होता हैं। इस जनजाति के दल का नेता नायक कहलाता हैं। इस जनजाति का सबसे लोकप्रिय नृत्य लावणी हैं लेकिन नवरात्रा के अवसर पर मावलिया नृत्य करते हैं। इस जनजाति की प्रमुख आराध्य देवी कंसारी देवी व भारी माता हैं जबकि प्रमुख आराध्य देव डूंगर देव व बाघ देव हैं।
  • इस जनजाति की घास -फूस से बनी झोंपड़ियों को खोलरा कहते हैं। यह राजस्थान की एकमात्र ऐसी जनजाति है जिसको नरेगा में 200 दिनों का रोजगार दिया गया हैं। इस जनजाति में परिवार आत्म केन्द्रित होता हैं तथा व्यक्ति शादी होते ही अपने मूल परिवार से अलग हो जाता हैं।
  • इस जनजाति में गहने पहनने का कोई रिवाज नहीं हैं लेकिन शरीर पर गोदने को महत्व हैं, यह जनजाति प्रकृति पर आश्रित हैं। सभी कथौड़ी मांसाहारी होते हैं इस जनजाति में गाय व लाल मुंह के बन्दर का मांस काफी लोकप्रिय हैं यह जनजाति मांस के साथ मक्का व ज्वार की रोटी खाती हैं।
  • इस जनजाति के प्रमुख वाद्ययन्त्र- गोरिडिया व थालीसर हैं। थालीसर- पीतल की थाली के समान बनाया गया वाद्ययन्त्र, इस वाद्य यन्त्र को देवी- देवताओं की स्तुति के समय या मृतक के अन्तिम संस्कार के समय बजाया जाता हैं।

सांसी जनजाति – 

  • यह जनजाति राजस्थान में सर्वाधिक भरतपुर में निवास करती हैं इस जनजाति की उत्पति सांसमल नामक व्यक्ति से हुई मानी जाती हैं। यह जनजाति 2 भागों में बंटी हुई हैं- 1.बीजा 2. माला। यह जनजाति अपने विवाद का निपटारा हरिजनों से करवाती हैं तथा हरिजनों को अपने से श्रेष्ठ मानती हैं। इस जनजाति में सूकड़ी (कूकड़ी) नामक रस्म पाई जाती हैं जिसमें स्त्री को स्त्रीत्व की अग्नि परीक्षा देनी पड़ती हैं।
  • इस जनजाति में विधवा विवाह का प्रचलन नहीं हैं यह जनजाति चोरी की विद्या मानती हैं। इस जनजाति में लोमड़ी व सांड का मांस प्रसिद्ध हैं। सांसी जनजाति में भाखर बावजी को अपना संरक्षक देवता मानते हैं। इनमें नारियल की गिरी के गोले के लेनदेन से विवाह पक्का मान लिया जाता हैं। इनके विवाह में तोरण व चंवरी नहीं बनाए जाते हैं, केवल लकड़ी का खम्भा गाड़कर वर- कन्या उसके चारों और 7 फेरे लेते हैं, यह जनजाति बहिर्विवाह होती हैं।
    यह जनजाति मूलतः हिन्दु ही हैं तथा हिन्दु देवी-देवताओं के त्योंहार व देवताओं का पूजन करते हैं। सांसी जनजाति का कोई स्थाई व्यवसाय नहीं हैं।

डामोर जनजाति – 

  • यह जनजाति राजस्थान में सर्वाधिक सीमलवाड़ा (डूंगरपुर) व बांसवाड़ा में निवास करती हैं। इस जनजाति की गाँव की छोटी इकाई को फलां कहते हैं, तथा पंचायत के मुखिया को मुखी कहा जाता हैं।
  • इस जनजाति में पुरूष भी स्त्रियों की भांति गहने पहनते हैं। इस जनजाति में गुप्त विवाह निषेध हैं। यह जनजाति कृषि पर आधारित हैं तथा यह राजस्थान की एकमात्र ऐसी जनजाति हैं जो वनों पर आश्रित नहीं हैं।
  • इस जनजाति का मुख्य मेला गुजरात में झेला बावजी का भरता हैं। होली के अवसर पर इस जनजाति में चाडिया नामक कार्यक्रम आयोजित होते हैं। डामोर गुजरात के निवासी होने के कारण अपनी स्थानीय भाषा में गुजराती का प्रयोग करते हैं। इस जनजाति में विवाह का मुख्य आधार वधू मूल्य होता हैं।
  • डामोर लोगों को डामरिया कहते हैं। दीपावली के अवसर पर इस जनजाति में पशुधन की पूजा लक्ष्मी के रूप में की जाती हैं। डामोरों में एकाकी परिवार में रहने की प्रथा हैं। डामोर अपने आप को राजपूत कहते हैं तथा इनके झगड़ों का निपटारा पंचायत द्वारा होता हैं।
  • इस जनजाति में बहुपत्नी विवाह पद्धति का प्रचलन हैं, स्त्रियां पति की मृत्यु के बाद नतरा (नातरा) भी करती हैं।

राजस्थान में इस जनजाति के मेले-

  • ग्यारस की रेवाड़ी मेला (डूंगरपुर)
  • छेला बावजी का मेला (पंचमहल, गुजरात)

2 thoughts on “राजस्थान की प्रमुख जनजातियाँ”

  1. आपको गरासिया के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है

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