राजस्थान में सुषिर वाद्य यंत्र (स्वर या फूँक)
इस श्रेणी में वे वाद्य यंत्र शामिल है जो फूँक से बजाये जाते है तथा वैदिक काल में इसे नादी या नाली नाम से सम्बोधित किया जाता था। यह वाद्य यंत्र लकड़ी या धातु से निर्मित होते है। इन वाद्य यंत्रों में हवा देने या फूँक मारने से ध्वनि उत्पन्न होती है। जो सुषिर वाद्य यंत्र कहलाते है। जिन्हें निर्माण सामग्री के आधार पर तीन भागों में बाँटा गया।
(1) बाँस, लकड़ी या तुँबी निर्मित (2) धातु निर्मित (3) नैसर्गिक स्वरूप वाले
मशक वाद्य:-
- अलवर, भरतपुर, सवाई माधेपुर, जयपुर के कुछ क्षेत्रों के नाथों व जोगियों द्वारा बजाया जाता है। मशक वाद्य आधुनिक बीन जो बैड़ साज है, से मिलता-जुलता है।
शंख (संक) –
- यह एक जंतु का कवच (खोल) है जो समुद्र में पैदा होता है। इसकी आवाज बड़ी गम्भीर होती है और बहुत दूर-दूर तक आवाज जाती हैं।
- इस वाद्य यंत्र को अक्सर मंदिरों में प्रातःकाल और सायंकाल आरती के समय बजाया जाता हैं।
मोरचंग/मुखचंग/मुहचंग:-
- इस वाद्य यंत्र को होठो पर रखकर बजाया जाता हैं। यह वाद्य यंत्र लंगा व आदिवासियों में प्रचलित है।
- इस वाद्य यंत्र को सारंगी की संगति में भी बजाया जाता है।
सिंगा:-
- यह वाद्य यंत्र बलदार सींग का बना होता है। इसको प्रायः साधु, भगवान का स्मरण करने के बाद बजाया करते हैं। इसे युद्ध के समय बजाया जाता था इसलिए इसे रण सिंगा कहा जाता हैं।
तुरहीः-
- यह वाद्य यंत्र चिलम की आकृति का होता है। इसे मध्यकाल से युद्ध का वाद्य यंत्र माना जाता हैं।
करणा:-
- यह वाद्य यंत्र तुरही से मिलता-जुलता होता है तथा चिलम की शक्ल का होता है। प्राचीन काल में इसे राजदरबार में बजाया जाता था।
नागफणी:-
- यह वाद्य यंत्र स्टील की पतली चाद्दर की बनी होती हैं। जो कि सर्पाकार आकृति में होने के कारण इसे नागफणी कहते है।
- नागफणी साधुओें की मंडलियों का वाद्य यंत्र है इसी कारण ये धार्मिक वाद्य यंत्र या याचकों का वाद्य यंत्र हैं।
बांकिया:-
- यह वाद्य यंत्र पीतल का बना होता है तथा वक्राकार होने के कारण इसे बांकिया कहते हैं। इस वाद्य यंत्र को शादी ब्याह और मांगलिक अवसर पर बजाया जाता है।
भूंगल:-
- यह मेवाड़ की भवाई जाति का वाद्य यंत्र है। मुख्यतः खेल शुरू होने से पहले जनता को एकत्रित करने के लिए इसे बजाया जाता है।
- यह बिगुल की आकृति का होता है तथा इसे भैरी कहा जाता हैं।
बोली:-
- यह वाद्य कठपुतलियों का खेल दिखाने वाले कलाकारों का प्रमुख वाद्य यंत्र है। जिसका प्रयोग कठपुतलियो को नचाते समय उनके संवादों को प्रकट करने तथा चरित्रों के हाव-भाव व्यक्त करने के लिए इस वाद्य यंत्र का उपयोग किया जाता हो।
पेली:-
- यह वाद्य यंत्र मेवात व मत्स्य क्षेत्र में अधिक प्रचलित है। यह वाद्य यंत्र बांसुरीनुमा होता है।
पावरी (पाविका):-
- राजस्थान के वागड़ क्षेत्र के कथोड़ियों तथा भीलों में प्रचलित एक जनजातीय वाद्य यंत्र हैं। महाराष्ट्र के आदिवासियों में इसी वाद्य यंत्र को ’’तारपा’’ नाम से जाना जाता है।
घुरालियो:-
- इस वाद्य यंत्र को स्थानीय भाषा में घोड़यूँ कहा जाता हैं। यह आदिवासी व घुम्मकड़ जातियों का लोकप्रिय वाद्य यंत्र है।
पूँगी/बीण/बीन:-
- यह सपेरों-कालबेलियों का प्रमुख वाद्य यंत्र है। इसका ढांचा लौकी की तुंबी से बनाया जाता हैं। इसके सहारे सपेरे सांप पकड़कर उनको नचाकर ग्रामवासियों का मंनोरंजन करके आजीविका कमाते है।
मुरला (मुरली):-
- पूँगी का ही परिष्कृत रूप है इसे भी तूंबी से बनाया जाता है। इसे बजाने के लिए लगातार फूँक दी जाती है इस क्रिया को नकसासी कहते है।
तारपी:-
- तारपी मुख्यतः कथोड़ी जाति का वाद्य यन्त्र हैं। यह वाद्य यन्त्र पावरी की श्रेणी मे आता है।
कानी:-
- इस वाद्य यंत्र को चरवाहों का वाद्य यंत्र भी कहा जाता हैं। यह वाद्य यंत्र आकार-प्रकार में नड़ से छोटा होता है। दक्षिणी राजस्थान के आदिवासियों में प्रचलित है।
अलगोजा:-
- सिंध प्रदेश में अलगोजा को बीन कहा जाता है। इनमें दो बांसूरियों को जोडे़ में बजाया जाता है। रामनाथ चैधरी जयपुर निवासी इस वाद्य के प्रमुख कलाकार है। यह एक उत्सव वाद्य यंत्र है।
नड़:-
- राजस्थान के पश्चिमी रेगिस्तान क्षेत्र के चरवाहों एवं भोपो का प्रमुख कगोर की लकड़ी से बना वाद्य यंत्र नड कहलाता है। जैसलमेर का कर्णा भील नड़ का बहुत ख्याति प्राप्त कलाकार हुआ है।
सतारा:-
- अलगोजा, शहनाई, बाँसुरी का समन्वित रूप है। दो बाँसुरीयों वाला युग्म साज है। जब दो बांसुरीयाँ बराबर लम्बाई की रखी जाती है तो इसे परवाजोड़ी कहा जाता है और दोनों बांसुरीयाँ छोटी व बड़ी होने पर यह डोढ़ाजोड़ी कहलाता है। जैसलमेर के भाट तथा मरू प्रदेश के चरवाहों का प्रमुख वाद्य यंत्र है।
सुरनईः-
- लंगा तथा ढ़ोली जाति के द्वारा मांगलिक अवसर पर बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र है, यह वाद्य यंत्र शहनाई से मिलता-जुलता वाद्य यंत्र है।
बाँसुरीः-
- इसको शास्त्रीय वादन और लोक कलाकार बजाते है। इसका प्रयोग अधिकतर दूसरे वाद्य यंत्रों की संगत में बजाया जाता हैं। भगवान कृष्ण और उनकी रास लीलाओं से बाँसुरी का घनिष्ठ संम्बन्ध है। बाँसुरी के प्रकारों में पावला, रूला तथा नादी प्रमुख है।
- पावला:- पांच छेदों वाली बाँसुरी को कहते है।
- रूला:- इस प्रकार की बाँसरी के छः छेद होते है।
- नादी:- नाद उत्पन्न करने वाली होने के कारण नादी बाँसुरी कहलाती है। हरि प्रसाद चैरसिया प्रसिद्ध बाँसुरी वादक है।