हिन्दी : अलंकार
(Hindi : Ornaments)
- संस्कृत के अलंकार संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य दण्डी के शब्दों में –
‘काव्य शोभाकरान् धर्मान अलंकारान् प्रचक्षते’
अर्थ – काव्य के शोभाकारक धर्म (गुण) अलंकार कहलाते हैं।
- हिन्दी के कवि केशवदास एक अलंकारवादी कवि हैं।
- ‘अलंकार’ शब्द की रचना ‘अलम् + कार’ के योग से हुई है।
- यहाँ ‘अलम्’ का अर्थ होता है – ‘शोभा’ तथा ‘कार’ का अर्थ होता है – ‘करने वाला’। अर्थात् जो शोभा में वृद्धि करता है, उसे अलंकार कहते हैं।
- एक संज्ञा शब्द के रूप में इसका अर्थ ‘आभूषण’ होता है।
अलंकारों का वर्गीकरण –
काव्य में प्राप्त होने वाले सभी अलंकारों को मुख्यत: तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है –
1. शब्दालंकार
2. अर्थालंकार
3. उभयालंकार
1. शब्दालंकार – जब किसी काव्य में प्रयुक्त आलंकारिक शब्द के स्थान पर उसका अन्य कोई पर्यायवाची शब्द रख दिया जाता है एवं उससे वह अलंकार नष्ट हो जाता है; तब वहाँ शब्दालंकार माना जाता है। अर्थात् जब किसी शब्द विशेष के कारण ही काव्य में अलंकार रहता है, तो वहाँ शब्दालंकार माना जाता है। जैसे – अनुप्रास, यमक आदि।
2. अर्थालंकार – जब किसी काव्य में अर्थगत चमत्कार पाया जाता है तो वहाँ अर्थालंकार माना जाता है। अर्थात् जब किसी काव्य में प्रयुक्त आलंकारिक शब्द के स्थान पर उसका कोई भी पर्यायवाची शब्द रख दिये जाने पर भी अलंकार बना रहता है (अर्थ में चमत्कार बना रहता है।) तो वहाँ अर्थालंकार माना जाता है। जैसे उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा
3. उभयालंकार – जब किसी काव्य में शब्द एवं अर्थ दोनों का चमत्कार पाया जाता है तो वहाँ उभयालंकार माना जाता है। जैसे – श्लेष, वक्रोक्ति।
विभिन्न अलंकाराें का परिचय :
रूपक अलंकार –
लक्षण – ‘तद् रूपकमभेदो यो उपमानोपमेययो:’
अर्थात् जब किसी पद में उपमान एवं उपमेय में कोई भेद नहीं रह जाता है अर्थात् उपमेय में उपमान का निषेधरहित आरोपण कर दिया जाता है तो वहाँ रूपक अलंकार माना जाता है। जैसे :-
‘अवधेस के बालक चारि सदा, तुलसी मन-मंदिर में विहरें।’
यहाँ ‘मन-मंदिर’ पद में रूपक अलंकार है, क्योंकि यहाँ मन को मंदिर रूप में मान लिया गया है। इस प्रकार उपमेय (मन) में उपमान (मंदिर) का निषेधरहित (अभेद) आरोप होने के कारण यहाँ रूपक अलंकार हैं।
पहचान – जब किसी पद का भावार्थ ग्रहण करने पर दो पदों के बीच में ‘रूपी’ शब्द की प्राप्ति होती है तो वहाँ रूपक अलंकार माना जाता है।
रूपक अलंकार के भेद – रूपक अलंकार के मुख्यत: दो भेद माने जाते हैं :-
1. अभेद रूपक
2. तद्रूप रूपक
अभेद रूपक में उपमेय और उपमान एक दिखाये जाते हैं, उनमें कोई भी भेद नहीं रहता है; जबकि तद्रूप रूपक में उपमान, उपमेय का रूप तो धारण करता है, पर एक नहीं हो पाता। उसे ‘और’ या ‘दूसरा’ कहकर व्यक्त किया जाता है।
अभेद रूपक के भी पुन: निम्न तीन उपभेद कर दिये जाते हैं :-
(i) सांग रूपक
(ii) निरंग रूपक
(iii) परम्परित रूपक
(i) सांग रूपक – जब किसी पद में उपमान का उपमेय में अंगों या अवयवों सहित आरोप किया जाता है तो वहाँ सांग रूपक अलंकार माना जाता है। दूसरे शब्दों में जब उपमेय को उपमान बनाया जाये और उपमान के अंग भी उपमेय के साथ वर्णित किये जाएं तब सांगरूपक अलंकार होता है।
इस रूपक में जिस आरोप की प्रधानता होती है, उसे ‘अंगी’ कहते हैं। शेष आरोप गौण रूप से उसके अंग बन कर आते हैं।
सामान्य पहचान के लिए जब किसी पद में एक से अधिक स्थानों पर रूपक की प्राप्ति होती है तो वहाँ सांगरूपक अलंकार माना जाता है। जैसे –
‘उदित उदयगिरि मंच पर, रघुवर बाल-पतंग।
बिकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन-भृंगा।।’
उपमेय – उपमान
सीता स्वयंवर मंच – उदयगिरि
रघुवर (राम) – बाल-पतंग (बाल सूर्य)
संत – सरोज (कमल-वन)
लोचन – भृंग (भ्रमर)
‘बीती विभावरी जाग री।
अम्बर-पनघट में डूबो रही तारा-घट उषा नागरी।।”
उपमेय – उपमान
नागरी (नगर में रहने वाली) – उषा
घट – तारा
पनघट – अम्बर
(ii) निरंग रूपक – जब किसी पद में अंगों या अवयवों से रहित उपमान का उपमेय में आरोपण किया जाता है तो वहाँ निरंग रूपक अलंकार होता है।
पहचान के लिए जब किसी पद में केवल एक जगह रूपक अलंकार की प्राप्ति होती है तो वहाँ निरंग रूपक अलंकार माना जाता है। जैसे –
‘चरण कमल मृदु मंजु तुम्हारे।’
(iii) पारम्परित रूपक – जब किसी पद में कम से कम दो रूपक अवश्य होते हैं तथा उनमें से एक रूपक के द्वारा दूसरे रूपक की पुष्टि होती है तो वहाँ परम्परित रूपक अलंकार माना जाता है।
‘जय जय जय गिरिराज किशोरी।
जय महेश मुख चन्द्र चकोरी।।’
2. तद्रूप रूपक – जब किसी पद में उपमेय को उपमान के दूसरे रूप में स्वीकार किया जाता है; वहाँ तद्रूप रूपक अलंकार माना जाता है।
पहचान के लिए जब किसी पद में रूपक के साथ दूसरा, दूसरी, दूसरो, दूजा, दूजी, दूजो, अपर अथवा इनके अन्य समानार्थी शब्दों का प्रयोग हो रहा हो तो वहाँ तद्रूप रूपक अलंकार माना जाता है। जैसे –
‘तू सुंदरि शचि दूसरी, यह दूजो सुरराज।’
प्रस्तुत पद में नायक को दूसरे इन्द्र (सुरराज) के रूप में तथा नायिका को दूसरी इन्द्राणी (शची) के रूप में स्वीकार किया गया है, अत: यहाँ तद्रूप अलंकार है।
उपमा अलंकार –
लक्षण – ‘जहाँ बरनिए बुहुनि की, सम छवि को उल्लास।
पण्डित कवि मतिराम तहँ, उपमा कहत प्रकास।।’
जब किसी पद में दो पदार्थों की समानता को व्यक्त किया जाता है अर्थात् किसी एक सामान्य पदार्थ को किसी प्रसिद्ध पदार्थ के समान मान लिया जाता है तो वहाँ उपमा अलंकार माना जाता है।
शाब्दिक विश्लेषण की दृष्टि से उपमा शब्द ‘उप + मा’ के योग से बना है। यहाँ ‘उप’ का अर्थ होता है – ‘समीप’ तथा ‘मा’ का अर्थ होता है – ‘मापना’ या ‘तोलना’ अर्थात् समीप रखकर दो पदार्थों का मिलान करना ‘उपमा’ के नाम से जाना जाता है। जैसे –
‘चन्द्रमा-सा कान्तिमय मुख रूप दर्शन है तुम्हारा।’
उपमा या अर्थालंकारों के अंग – किसी भी सादृश्यमूलक अर्थालंकार के मुख्यत: निम्न चार अंग माने जाते हैं – (i) उपमेय (ii) उपमान (iii) वाचक शब्द (iv) साधारण धर्म
(i) उपमेय – कवि जिस पदार्थ का वर्णन करता है, उस सामान्य पदार्थ को ‘उपमेय’ या ‘प्रस्तुत पदार्थ कहा जाता है।
(ii) उपमान – कवि अपने द्वारा वर्णित सामान्य पदार्थ की जिस प्रसिद्ध पदार्थ से समानता व्यक्त करता है अर्थात् जो उदाहरण प्रस्तुत करता है, उसे ‘उपमान’ या ‘अप्रस्तुत पदार्थ’ कहा जाता है।
(iii) वाचक शब्द – समानता के अर्थ को प्रकट करने के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है, वे वाचक शब्द कहलाते हैं। सा, सी, से, सम, सरिस, इव, जिमि, सदृश, लौं इत्यादि उपमान वाचक शब्द माने जाते हैं।
(iv) साधारण धर्म – उपमेय (प्रस्तुत पदार्थ) तथा उपमान (अप्रस्तुत पदार्थ) दोनों में जो समान विशेषता या समान लक्षण या समान गुण पाये जाते हैं, उसे साधारण धर्म कहा जाता है।
‘सुनि सुरसरि सम सीतल बानी।’
उपमेय – बानी (वाणी)
उपमान – सुरसरि (गंगा)
साधारण धर्म – सीतल (ठण्डी/मधुर)
वाचक शब्द – सम
उपमा अलंकार के भेद – ‘उपमा’ के मुख्यत: निम्न दो भेद माने जाते हैं :-
1. पूर्णोपमा (पूर्णा + उपमा) – उपमा अलंकार के जिस पद में उपमा के चारों अंग मौजूद रहते हैं; वहाँ पूर्णोपमा अलंकार माना जाता है।
2. लुप्तोपमा (लुप्ता + उपमा) – उपमा अलंकार के जिस पद में उपमा के चारों अंगों में से कोई भी एक अंग, दो अंग या तीन अंग लुप्त हो जाते हैं तो वहाँ लुप्तोपमा अलंकार माना जाता है।
उत्प्रेक्षा अलंकार –
लक्षण – ‘सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत्।’
जब किसी पद में उपमेय को उपमान के समान तो नहीं माना जाता है, परन्तु यदि उपमेय में उपमान की सम्भावना प्रकट कर दी जाती है, तो वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार माना जाता है।
उपर्युक्त संस्कृत लक्षण का हिन्दी अर्थ निम्नानुसार ग्रहण किया जाता है –
प्रकृतस्य – उपमेय की, समेन – उपमान के साथ, यत् – जो, सम्भावनम् – सम्भावना व्यक्त की जाती है, उसे उत्प्रेक्षा कहते हैं।
उत्प्रेक्षा शब्द ‘उद् + प्र + ईक्षा’ के योग से बना है। अर्थात् प्रकृष्ट रूप में देखना ही उत्प्रेक्षा है। जैसे – ‘दादुर धुनि चहुँ ओर सुहाई। वेद पढ़त जनु बटु समुदाई।’
अर्थात् वर्षा ऋतु में चारों ओर से मेंढ़कों की आवाज सुनाई दे रही है। वह आवाज ऐसी लगती है जैसे कि किसी आश्रम में शिष्य समुदाय वेद पाठ कर रहा हो।
वहाँ उपमेय (दादुर धुनि) में उपमान (वेद-पाठ) की संभावना को व्यक्त किया गया है। अत: यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।
अनुप्रास अलंकार –
‘अनुप्रास’ शब्द ‘अनु + प्र + आस’ के योग से बना है। यहाँ ‘अनु’ का अर्थ है – ‘बार-बार’; ‘प्र’ का अर्थ है – ‘प्रकर्षता’ अथवा ‘अधिकता’ तथा ‘आस’ का अर्थ – ‘बैठना/आना/रखना’ अर्थात् जब किसी पद (काव्य) में वर्णनीय रस की अनुकूलता के अनुसार एक या अनेक वर्ण बार-बार समीपता से आते हैं या रखे जाते हैं तो वहाँ अनुप्रास अलंकार माना जाता है।
‘भगवान भक्तों की भयंकर भूरि भीति भगाइये’
प्रस्तुत पद में प्रयुक्त शब्दों के प्रारम्भ में ‘भ्’ वर्ण का बार-बार प्रयोग हुआ है, अतएव यहाँ अनुप्रास अलंकार माना जाता है।
‘चारु चन्द्र की चंचल किरणें खेल रही थीं जल में’
प्रस्तुत पद में ‘च्’ वर्ण का बार-बार प्रयोग होने के कारण अनुप्रास अलंकार है।
अनुप्रास के भेद – अनुप्रास अलंकार के मुख्यत: पाँच भेद माने जाते हैं –
(i) छेकानुप्रास – जब किसी पद में किसी वर्ण का दो बार प्रयोग (एक बार ही आवृत्ति) होती है तो वहाँ छेकानुप्रास अलंकार माना जाता है। यह आवृत्ति कम से कम दो अलग-अलग वर्णों में होनी आवश्यक है। साथ ही आवृत्ति एक निश्चित क्रम में होनी आवश्यक है। जैसे-
‘कानन कठिन भयंकर भारी। घोर घाम हिम बार-बयारी।’
प्रस्तुत पद में ‘क’, ‘भ’, ‘घ’ एवं ‘ब’ वर्णों का एक निश्चित क्रमानुसार दो-दो बार प्रयोग (एक बार आवृत्ति) हुआ है, अतएव यहाँ छेकानुप्रास अलंकार है।
नोट – ‘छेक’ का शाब्दिक अर्थ है – ‘चतुर’ अर्थात् यह अलंकार चतुर मनुष्यों को अधिक प्रिय होता है, अत: इसे छेकानुप्रास अलंकार कहते हैं।
(ii) वृत्यनुप्रास – जब किसी पद में एक या अनेक वर्णों की एक से अधिक बार आवृत्ति (दो से अधिक बार प्रयोग) होती है तो वहाँ वृत्यनुप्रास अलंकार माना जाता है। जैसे –
‘रघुनंद आनंद कंद कौसल चंद दशरथ नंदनम्’
प्रस्तु पद में ‘अंद (न्द)’ वर्णों का पाँच जगह प्रयोग हुआ है, अतएव यहाँ उपनागरिका वृत्ति वृत्यनुप्रास अलंकार है।
(iii) श्रुत्यनुप्रास – जब किसी पद में एक ही उच्चारण स्थान वाले वर्णों की बार-बार आवृत्ति होती है तो वहाँ श्रुत्यनुप्रास अलंकार माना जाता है। यह अनुप्रास सहृदय काव्यरसिकों को सुनने में अत्यंत प्रिय लगता है, अत: इसे श्रुत्यनुप्रास कहते हैं। जैसे –
‘तुलसीदास सीदत निस दिन देखत तुम्हारी निठुराई’
प्रस्तु पद में दन्त्य वर्णों का पास-पास अनेक बार प्रयोग हुआ है, अतएव यहाँ श्रुत्यनुप्रास अलंकार है।
(iv) लाटानुप्रास – जब किसी पद में शब्द और अर्थ तो एक ही रहते हैं परन्तु अन्य पद के साथ अन्वय करते ही तात्पर्य या अभिप्राय भिन्न रूप में प्रकट होता है, वहाँ लाटानुप्रास अलंकार माना जाता है। लाट देश (आधुनिक दक्षिण गुजरात) के लोगों को अधिक प्रिय होने के कारण इसे लाटानुप्रास कहा जाता है। जैसे –
‘पूत कपूत तो क्यों धन संचै।
पूत सपूत तो क्यों धन संचै।।’
यहाँ प्रयुक्त सभी शब्द समान अर्थ को प्रकट करते हैं, परन्तु ‘कपूत’ ‘सपूत’ के कारण तात्पर्य में थोड़ी भिन्नता आ जाती है, अतएव यहाँ लाटानुप्रास अलंकार है।
(v) अन्त्यानुप्रास – जब किसी छंद के चरणों के अंत में एक जैसे स्वरों या व्यंजन वर्णों का प्रयोग होता है तो वहाँ अन्त्यानुप्रास अलंकार माना जाता है। प्राय: प्रत्येक तुकान्त काव्य में अन्त्यानुप्रास अलंकार पाया जाता है। जैसे –
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
यमक अलंकार –
लक्षण – ‘एक शब्द फिरि – फिरि जहाँ, परै अनेकन बार।
अर्थ और ही और हो, सो यमकालंकार।।’
अर्थात् जब किसी पद (काव्य) में एक सम्पूर्ण शब्द का एक से अधिक बार प्रयोग होता है एवं उनका अलग-अलग अर्थ प्रकट होता है तो वहाँ यमक अलंकार माना जाता है। जैसे –
‘कनक-कनक तें सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।।’
‘सारंग ले सारंग उड्यो, सारंग पुग्यो आय।
जे सारंग सारंग कहे, मुख को सारंग जाय।।’
यमक अलंकार के भेद – यमक अलंकार के मुख्यत: निम्न दो भेद माने जाते हैं :-
(i) अभंग यमक (ii) सभंग यमक
श्लेष अलंकार –
लक्षण – ‘प्रगट अनेकन अर्थ जहँ, एक शब्द से होय।
ताहि कहत है श्लेष कवि, द्वै विधि होवे सोय।।’
जब किसी पद में प्रयुक्त एक ही शब्द के अलग-अलग सन्दर्भ के अनुसार अलग-अलग अर्थ प्रयुक्त हो जाते हैं तो वहाँ श्लेष अलंकार माना जाता है।
‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानस, चून।।’
‘चरण धरत चिन्ता करत भावत नींद न सोर।
सुबरण को ढूँढ़त फिरै, कवि कामी अरु चोर।।’
मानवीकरण अलंकार –
लक्षण – जब किसी पद में किसी प्राकृतिक पदार्थ को (जड़ या अमूर्त पदार्थ को) मानव के रूप में मान लिया जाता है अथवा प्राकृतिक पदार्थों में मानवीय क्रियाओं का आरोपण कर दिया जाता है अर्थात् जहाँ प्राकृतिक जड़ या अमूर्त पदार्थ भी मानवों के जैसी क्रियाएँ करते दिखलाई पड़ते हैं, वहाँ मानवीकरण अलंकार माना जाता है। जैसे –
बीती विभावरी जाग री।
अम्बर पनघट में डूबो रही तारा घट उषा नागरी।
खगकुल कुलकुल सा बोल रहा;
किसलय का अंचल डोल रहा।
लो यह लतिका भी भर लाई,
मधु मुकुल नवल रस गागरी।
जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित प्रस्तुत गीत में ‘उषा’ को एक नागरी (नगर में रहने वाली नारी) के रूप में चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त पक्षी समूह (खगकुल) का कुलकुल की ध्वनि करते हुए बोलना, किसलय रूपी अंचल का डोलना, लतिका (लता) के द्वारा मधु मुकुल के रूप में नवल रस की गागरी (कलश) भरना जैसे प्रयोगों के द्वारा प्राकृतिक पदार्थों में मानवीय क्रियाओं का आरोपण किया गया है। अत: यहाँ मानवीकरण अलंकार है।
‘धीरे-धीरे हिम आच्छादन, हटने लगा धरातल से।
जगी वनस्पतियाँ अलसायी, मुख धोती सीतल जल से।।’
प्रस्तुत पद में प्राकृतिक पदार्थ वनस्पतियों में मानवीय क्रियाओं (आलस्य से जागना, ठण्डे पानी से मुख धोना आदि) का आरोपण किया गया है, अत: यहाँ मानवीकरण अलंकार है।
‘ऊधौ! मन न भये दस-बीस।
एक हुतो सो गयो स्याम संग को अवराधै ईस।।’
भ्रान्तिमान अलंकार –
जब किसी पद में किसी सादृश्य विशेष के कारण उपमेय में उपमान का भ्रम उत्पन्न हो जाता है तो वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार माना जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जब किसी पदार्थ को देखकर हम उसे उसके समान गुणों या विशेषताओं वाले किसी अन्य पदार्थ के रूप में मान लेते हैं तो वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार माना जाता है। जैसे –
अँधेरे में किसी ‘रस्सी’ को देखकर उसे ‘साँप’ समझ लेना भ्रान्तिमान अलंकार है।
जैसे –
‘ओस बिन्दु चुग रही हंसिनी मोती उनको जान।’
प्रस्तुत पद में हंसिनी को ओस बिन्दुओं (उपमेय) में मोती (उपमान) का भ्रम उत्पन्न हो रहा है अर्थात् वह ओस की बूँदों को मोती समझकर चुग रही है, अतएव यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।
‘बिल विचार प्रविशन लग्यो, नाग शुँड में व्याल।
काली ईख समझकर, उठा लियो तत्काल।।’
प्रस्तुत पद में सर्प (व्याल) को हाथी (नाग) की सूँड में बिल का तथा हाथी को काले सर्प में काली ईख (गन्ने) का भ्रम उत्पन्न हो रहा है, अत: यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।
‘भ्रमर परत शुक तुण्ड पर, जानत फूल पलास।
शुक ताको पकरन चहत, जम्बु फल की आस।।’
‘किंशुका कलिका जानकर, अलि गिरता शुक चोंच पर।
शुक मुख में धरता उसे, जामुन का फल समझकर।।’
‘नाक का मोती अधर की कान्ति से, बीज दाडिम का समझकर भ्रान्ति से।
देखकर सहसा हुआ शुक मौन है, सोचता है अन्य शुक यह कौन है।।’
सन्देह अलंकार –
जब किसी पद में समानता के कारण उपमेय में उपमान का सन्देह उत्पन्न हो जाता है और यह सन्देह अन्त तक बना रहता है तो वहाँ सन्देह अलंकार माना जाता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि जब किसी पदार्थ को देखकर हम उसके नाम (संज्ञा) के बारे में कोई निर्णय नहीं कर पाते हैं एवं यह अनिर्णय की स्थिति अन्त तक बनी रहती है तो वहाँ सन्देह अलंकार माना जाता है।
इस अलंकार में ‘किधौं’, ‘केधौं’, ‘किंवा’ जैसे संदेहव्यंजक शब्दों का संदेहवाचक शब्द के रूप में प्रयोग होता है। जैसे –
‘निश्चय होय न वस्तु को, सो सन्देह कहाय।
किधौं, यही धौं, यह कि यह, इति विधि शब्द जताय।।’
उदाहरण –
”सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है।
सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है।।
महाभारत काल में द्रौपदी के चीर हरण के समय उसकी बढ़ती साड़ी (चीर) को देखकर दु:शासन के मन में यह संशय उत्पन्न हो रहा है कि यह साड़ी के बीच नारी (द्रौपदी) है या नारी के बीच साड़ी है अथवा साड़ी नारी की बनी हुई है या नारी साड़ी से निर्मित है।
इसी प्रकार –
‘ये हैं सरस ओस की बूँदें या हैं मंजुल मोती।।
विभावना अलंकार –
लक्षण – ‘विभावना विनापि स्यात् कारणं कार्य जन्म चेत्।’
हमारे द्वारा जो कोई भी कार्य किया जाता है, उनके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य निहित होता है, परन्तु जब किसी पद में वास्तविक कारण के बिना ही किसी कार्य का होना पाया जाता है तो वहाँ विभावना अलंकार माना जाता है। पहचान के लिए जब किसी पद में ‘बिना, बिनु, बिन, रहित’ आदि शब्दों का प्रयोग होता है तो वहाँ विभावना अलंकार माना जाता है। जैसे –
‘बिनु पद चलै, सुनै बिनु काना।
बिनु कर करम करै विधि नाना।
आनन रहित सकल रस भोगी।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।
प्रस्तुत पद में परम पिता परमेश्वर की सर्वव्यापकता का वर्णन करते हुए कवि तुलसीदासजी कहते हैं कि वह परम पिता परमेश्वर बिना पैरों के चलता है, बिना कानों के सुनता है, हाथों के बिना ही अनेक कार्य करता है, मुख से रहित होने पर भी समस्त पदार्थों का उपभोग करता है तथा जिह्वा के बिना भी बहुत बड़ा वक्ता है।
यहाँ संबंधित कारणों (पैर, कान, हाथ, मुख, जिह्वा) के बिना ही चलने, सुनने, कर्म करने, रस-उपभोग करने व बोलने के कार्य हो रहे हैं, अत: यहाँ विभावना अलंकार माना जाता है।
‘निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करै सुभाय।।’
विभावना के भेद :- विद्वान आचार्यों के द्वारा विभावना के मुख्यत: निम्न छह भेद माने गये हैं :-
प्रथम – कारण के अभाव में भी कार्य का होना।
द्वितीय – अपूर्ण या अपर्याप्त कारण होने पर भी कार्य का होना।
तृतीय – बाधक परिस्थितियों के होने पर भी कार्य का होना।
चतुर्थ – वास्तविक कारण के स्थान पर अन्य कारण से कार्य होना।
पंचम – विरोधी कारण से कार्य होना।
षष्ठ – कार्य से कारण की उत्पत्ति होना।
विरोधाभास अलंकार –
‘विरोधाभास’ शब्द ‘विरोध + आभास’ के योग से बना है, अर्थात् जब किसी पद में वास्तविकता में तो विरोध वाली कोई बात नहीं होती है, परन्तु सामान्य बुद्धि से विचार करने पर वहाँ कोई भी पाठक विरोध कर सकता है तो वहाँ विरोधाभास अलंकार माना जाता है। जैसे :-
‘या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहि कोय।
ज्यौं ज्यौं बूड़ै स्याम रंग, त्यौं त्यौं उजलो होय।।’
प्रस्तुत पद में कवि यह कहना चाहता है कि हमारे अनुरागी मन की गति को कोई भी समझ नहीं सकता है, क्योंकि यह जैसे-जैसे कृष्ण भक्ति के रंग में डूबता जाता है, वैसे-वैसे ही उसके विकार दूर होते चले जाते हैं।
यहाँ कोई भी सामान्य बुद्धि का पाठक यह विरोध कर सकता है कि जो काले रंग में डूबता है, वह उज्ज्वल (सफेद) कैसे हो सकता है। इस प्रकार विरोध का आभास होने के कारण यहाँ विरोधाभास अलंकार माना जाता है।
‘अवध को अपनाकर त्याग से, वन तपोवन सा प्रभु ने किया।
भरत ने उनके अनुराग से, भवन में वन का व्रत ले लिया।।’
‘तन्त्री नाद कवित्त रस, सरस राग रति रंग।
अनबूड़े बूड़े तिरे, जे बूड़े सब अंग।।’
असंगति अलंकार –
जब किसी पद में किसी कार्य का अपने मूल स्थान से हटकर किसी अन्य स्थान पर घटित होना पाया जाता है अर्थात् जो काम जहाँ होना चाहिए, वहाँ नहीं होकर किसी अन्य स्थान पर होता है तो वहाँ असंगति अलंकार माना जाता है।
जैसे – ‘हृदय घाव मोरे, पीर रघुवीरे।’
सामान्यत: जिस व्यक्ति के शरीर पर घाव होता है, पीड़ा भी उसी को होती है, परन्तु यहाँ घाव तो लक्ष्मण के हृदय में हो रहा है तथा उसकी पीड़ा राम के हृदय में हो रही है, अत: उपयुक्त स्थान पर कार्य नहीं होने के कारण यहाँ असंगति अलंकार माना जाता है।
‘पलनि पीक अंजन अधर, धरे महावर भाल।
आजु मिलै हो भली करी, भले बनै हो लाल।।’
सामान्यत: पान का बीड़ा मुख में रखा जाता है, अंजन (काजल) आँखों में लगाया जाता है तथा महावर पैरों पर लगाया जाता है, परन्तु यहाँ कवि बिहारी ने पान (पीक) को आँखों की पलकों में, अंजन को होठों पर तथा महावर को मस्तक (भाल) पर चित्रित किया है। इस प्रकार वास्तविक स्थान पर पदार्थ नहीं होने के कारण यहाँ असंगति अलंकार है।
‘दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित्त प्रीति।
परत गाँठ दुरजन हिये, दई नई यह रीति।।’
प्रतीप अलंकार –
प्रतीप का शाब्दिक अर्थ होता है – ‘उलटा’ या ‘विपरीत’। यह ‘उपमा’ का विपरीत अलंकार माना जाता है। उपमा अलंकार में तो उपमेय को उपमान के समान माना जाता है; परन्तु जब किसी पद में इसके विपरीत अर्थात् उपमान को उपमेय बना दिया जाता है तो वहाँ प्रतीप अलंकार माना जाता है। जैसे –
‘मैथिली आनन से अरविंद, कलाधर आरसी जानि परै है।’
सामान्यत: मुख को उपमेय मानकर उसके लिए चन्द्रमा, कमल आदि को उपमान रूप में प्रस्तुत किया जाता है, परन्तु प्रस्तुत पद में सुप्रसिद्ध उपमानों (अरविंद, कलाधर, आरसी अर्थात् कमल, चन्द्रमा, दर्पण) को उपमेय बनाकर उसे मुख के समान बताया गया है, अतएव यहाँ प्रतीप अलंकार माना जाता है।
अतिशयोक्ति अलंकार –
‘अतिशयोक्ति’ शब्द ‘अतिशय + उक्ति’ के योग से बना है। यहाँ ‘अतिशय’ का अर्थ है – ‘बहुत ज्यादा’ तथा ‘उक्ति’ का अर्थ है – ‘कथन’ या ‘कहना’ अर्थात् किसी पदार्थ का बढ़ा चढ़ाकर वर्णन करना ‘अतिशयोक्ति’ कहलाता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि जब किसी पद में लोकसीमा का अतिक्रमण करके किसी विषय का वर्णन किया जाता है तो वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार माना जाता है।
जैसे – हनुमान की पूँछ में, लगन न पाई आग।
लंका सारी जल गई, गये निसाचर भाग।।
अतिशयोक्ति अलंकार के भेद – अतिशयोक्ति के मुख्यत: सात भेद हैं –
1. रूपकातिशयोक्ति
2. भेदकातिशयोक्ति
3. सम्बन्धातिशयोक्ति
4. असम्बन्धातिशयोक्ति
5. अक्रमातिशयोक्ति
6. अत्यन्तातिशयोक्ति
7. चपलातिशयोक्ति
हिन्दी के अन्य अलंकार :
उल्लेख –
- विषय भेद से एक वस्तु का अनेक प्रकार से वर्णन (उल्लेख)। जैसे –
उसके मुख को कोई कमल, कोई चन्द्र कहता है।
जाकी रही भावना जैसी, प्रभू-मूरति देखी तिन तैसी।
देखहि भूप महा रनधीरा, मनहु वीर रस धरे सरीरा।
डरे कुटिल नृप प्रभुहिं निहारी, मनहु भयानक मूरति भारी। (तुलसी)
स्मरण –
- सदृश या विसदृश वस्तु के प्रत्यक्ष से पूर्वानुभूत वस्तु का स्मरण।
- चन्द्र को देखकर मुख याद आता है।
परिकर –
- यदि विशेषण साभिप्राय हो।
जानो न नेक व्यथा पर की,
बलिहारी तऊ पै सुजान कहावत।
आक्षेप –
- किसी विवाक्षित वस्तु को बिना पूरा किये बीच में ही छोड़ देना।
- आपसे कहना तो बहुत कुछ था पर उससे लाभ क्या होगा।
विषम –
- दो बेमेल पदार्थों का संबंध बताना।
- कहाँ तो गुलाब की कँटीली डार और कहाँ ऐसे सुकुमार फूल। इन दो बेमेल वस्तुओं का एकत्रीकरण विधाता की भूल का ही तो परिणाम है।
एकावली –
- पूर्व-पूर्व वस्तु के प्रति पर-पर वस्तु का विशेषण रूप से स्थापन या निषेध।
मानुष वही जो हो गुनी, गुनी जो कोबिद रूप।
कोबिद जो कविपद लहै, कवि जो उक्ति अनूप।।
सार –
- वस्तुओं का उत्तरोत्तर उत्कर्ष वर्णन।
अति ऊँचे गिरि, गिरि से भी ऊँचे हरिपद है।
उनसे भी ऊँचे सज्जन के हृदय विशद हैं।।
अनुमान –
- साधन (प्रत्यक्ष) के द्वारा साध्य (अप्रत्यक्ष) का चमत्कारपूर्ण वर्णन।
मोहि करत कत बावरी, किये दूराव दुरै न।
कहे देत रंग राति के, रँग निचुरत से नैन। (बिहारी)
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